युवक कौन? युवक होने के वास्तविक लक्षणों का गहनतम अध्यन।
हर भारतीय नवयुवक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण लेख जो
वास्तविक ज्ञान के साथ साथ अध्यात्मिक एवं आत्मिक विकास पर भी ज़ोर देता हो। अगर नवयुवकों
ने इसे न पढ़ा तो समझो जीवन में कुछ भी न पढ़ा, कुछ भी न सीखा और कुछ भी न जाना। बस भेड़ की तरह भीड़ में शामिल हुये और भेड़ की तरह भीड़ में गुम। चलिये शुरुवात करते है...
युवकों के लिए कुछ भी बोलने के पहले यह ठीक से समझ
लेना जरूरी है कि युवक का अर्थ क्या है?
युवक का कोई भी संबंध शरीर की अवस्था से नहीं है।
न ही उम्र से युवा होना है। बूढ़े भी युवा हो सकते हैं, और युवा भी बूढ़े हो सकते
हैं। लेकिन ऐसा कभी - कभी ही होता है कि बूढ़े युवा हो, लेकिन ऐसा अक्सर होता है कि युवा बूढ़े होते
हैं। और इस देश में तो युवक पैदा होते हैं यह एक संदिग्ध बात है।
युवा होने का अर्थ है - चित्त की एक दशा, चित्त की एक जीवंत दशा, लिविंग स्टेट ऑफ माइंड। बूढ़े होने का अर्थ है -
चित्त की मरी हुई दशा। मतलब जीवन के प्रति हमारा आंतरिक (आत्मिक) व्यवहार, जीवन के प्रति हमारी सोच कैसी होनी चाहिए ये हमारे चित्त का व्याख्यान
करती है। जीवन के प्रति सकारात्मक सोच, जो कुछ भी गलत हो रहा
है उसे बदलने की सोच अगर ऐसा है तो चित्त युवा है। और जीवन के प्रति नकारात्मक सोच
जो कुछ भी गलत हो रहा है उसे बदलने के बारे में न सोच कर उससे बचना मतलब चित्त मर
चुका है। जीवन में चल रही समस्याओं के प्रति हमारा ये कहकर समस्याओं को स्वीकार
लेना कि मैं अकेला इन समस्याओं को मिटा नहीं सकता। ऐसी सोच को ऐसे युवक को हम सही
शब्दों में बूढ़ा कह सकते है। भले ही उसके पास एक जवान शरीर हो। दूसरी तरफ वास्तविक
युवक किसी भी तरह की समस्याओं को देखकर उन्हे अनदेखा न करे वो ये न सोचे की मैं
अकेला कुछ नहीं कर सकता बल्कि वो ये सोचे मैं अकेला जितना भी कर सकता हूँ मैं
करूंगा और अगर दूसरे भी साथ देंगे तो और अच्छा पर मैं अकेले करूंगा जरूर। बस यही
वास्तविक युवक है और ऐसी जीवंत सोच अगर बूढ़े में भी है तो वो बूढ़ा भी युवा है।
जीवन क्या है ? जरा यहाँ से समझिए - सीखने की प्रक्रिया है - जीवन।
ज्ञान की उपलब्धि है - जीवन। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने सीखना तो
हजारों साल से बंद कर दिया है। हम नया कुछ भी सीखने को उत्सुक और आतुर नहीं हैं।
हमारे प्राणों की प्यास ठंडी पड़ गई है, हमारी चेतना की
ज्योति ठंडी पड़ गई है, हमें एक भ्रम पैदा हो गया है कि
हमने सब सीख लिया है, हमने सब पा लिया, हमने सब जान लिया। जानने को अनंत शेष है। आदमी का ज्ञान कितना ही ज्यादा
हो जाए, उस अनंत विस्तार के सामने ना कुछ है, जो सदा जानने को शेष रह जाता है। ज्ञान तो थोड़ा सा है, अज्ञान बहुत बड़ा है। उस अज्ञान को जिसे तोड़ना है उसे सीखते ही जाना होगा, सीखते ही जाना होगा, सीखते ही रहना होगा।
लेकिन भारत में यह सीखने की प्रक्रिया और युवा
होने की धारणा ही खो गई है। यहां हम बहुत जल्दी सख्त हो जाते हैं, कठोर हो जाते हैं, लोच खो देते हैं। बदलाहट की क्षमता, रिसेप्टिविटी, ग्राहकता सब खो देते हैं। एक जवान आदमी से भी यहां बात करो तो वह इस तरह
बात करता है जैसे उसने अपनी सारी धारणाएं सुनिश्चित कर ली हैं। उसका सब ज्ञान ठहर
गया है, उसकी आंखों में इंक्वायरी नहीं मालूम होती, उसके व्यक्तित्व में जिज्ञासा नहीं मालूम होती, खोज नहीं मालूम होती। ऐसा लगता है, उसने पा
लिया, जान लिया, सब ठीक है।
आगे अब कुछ करने को शेष नहीं रह गया है। और प्राण इस तरह बूढ़े हो जाते हैं, व्यक्तित्व इस तरह जराजीर्ण हो जाता है और हजारों वर्षों से इस देश का
व्यक्तित्व जरा-जीर्ण है।
युवक के सामने एक ही कर्तव्य है, सुरक्षा से बचें। सुरक्षा
हमें खायेगी ही। सुरक्षा के कारण हम नयें की खोज नहीं कर पाते। क्योंकि सुरक्षा सदा
पुराने के साथ होती है। नयें में सदा भूल-चूक हैं, नये में सदा असफलता हैं। नया पुराने के बराबर
प्रमाणित होगा या नहीं होगा, यह सदा डर हैं। नयें से कहीं पहुंचेंगे,
नहीं पहुंचेंगे, यह भय है। नये का डर, नये का भय, हमें पुराने के साथ जीवन पर्यंत जोड़े रखता है। सुरक्षा पुराने को पकड़ा देती है और हम उस पुराने को पाकर तृप्त हो जाते है। इसलिए हम नया अविष्कार न करेंगे,
नई खोज न करेंगे, जिन्दगी के लिए नये नियम न निकालेंगे, जीवन के संबंधो में नये संबंध स्थापित न करेंगे। पुरानी लीक को पकड़ेंगे और चलेंगे। बूढ़ा चित्त पुरानी लीक पर चलने वाला चित्त
है। भटकता नहीं कभी, भूलता नहीं कभी, लेकिन जीता भी नहीं कभी। भटकन भी चाहिए,
भूल भी चाहिए, असफलता भी चाहिए। ध्यान रहे,
जो असफल होने की हिम्मत जुटाते हैं,
उनके ही सफल होने की संभावना भी है। जो असफलता से बच जाते हैं वे सफलता से
भी बच जाते हैं। ये दोनों चीजें साथ हैं। जो भूल नहीं करते हैं, वे कभी ठीक भी नहीं कर
पाते हैं। और जो भूल करने की हिम्मत जुटाते हैं, उनसे कभी ठीक भी हो सकता है। तो मैं इतना ही कहूँगा संक्षिप्त में
कि युवक - युवक होने की फिकर करे! इतना ही काफी है। इस फिकर में सब आ जाएगा। हमारा सारा देश विश्वास करने वाला देश है। मान लेना है, हमें
जो कहा जाता है उस पर सोचना नहीं है, विचार नहीं करना
है, क्योंकि सोचने और विचार करने में फिर खतरा है। हो
सकता है, हम मानी हुई मान्यताओं से विपरीत जाना पड़े
हमें। हो सकता है, मानी हुई मान्यताएं तोड़नी पड़ें, हो सकता है जो स्वीकृत है, जो पक्ष है हमारा वह
गलत सिद्ध हो, यह हम सहने को राजी नहीं हैं, इसलिए उसकी तरफ आंख ही नहीं खोलनी है। शुतुरमुर्ग निकलता है और अगर उसका
दुश्मन आ जाए तो वह रेत में मुंह गड़ा कर खड़ा हो जाता है। आंख बंद हो जाती है रेत
में, तो शुतुरमुर्ग को दिखाई नहीं पड़ता है कि दुश्मन है, वह खुश हो जाता है, वह मान लेता है जो नहीं
दिखाई पड़ता है, वह नहीं है। शुतुरमुर्ग को क्षमा किया जा सकता है, आदमी को क्षमा नहीं किया जा
सकता। लेकिन भारत शुतुरमुर्ग के तर्क का उपयोग कर रहा है आज तक। वह कहता है, जो चीज नहीं दिखाई पड़ती है, वह नहीं है। इसलिए
विश्वास का अंधापन ओढ़ लेता है और जीवन को देखना बंद कर देता है। जीवन में नग्न सत्य हैं; जिसे देखने में पीड़ा हो सकती है, लेकिन सत्य तो सत्य हैं। चाहे कितनी ही पीड़ा हो, उसे आंख खोल कर देखना पड़ेगा। क्योंकि आंख खोल कर देखने पर ही हम असत्य को
रूपांतरित करने में, बदलने में, ट्रांसफर करने में भी सफल हो सकते हैं। आंख बंद कर लेने से हम अंधे हो
सकते हैं लेकिन तथ्य बदल नहीं जाते। हम सारे तथ्यों को छिपा कर जी रहे हैं।
क्योंकि विश्वास की एक गैर साहसपूर्ण धारणा हमने पकड़ ली है। संदेह की साहसपूर्ण
यात्रा हमारी नहीं है। इसी वजह से हमारा साहस कम हो गया है, अकेले होने की हिम्मत हमारी कम हो गई है। और ध्यान रहे, युवक का अनिवार्य लक्षण है, अकेले होने की हिम्मत, दि करेज टु स्टैंड अलोन।
वह युवक होने का एक अनिवार्य लक्षण है। हम भीड़ के साथ खड़े हो सकते हैं। जहां सारे
लोग जाते हैं वहां हम जा सकते हैं। हम वहां नहीं जा सकते जहां आदमी को अकेला जाना
पड़ता है। नई जगह तो आदमी को सदा अकेला जाना पड़ता है। किसी एक व्यक्ति को अकेले
चलने की हिम्मत करनी पड़ती है। क्योंकि भीड़ तो पहले प्रतीक्षा करेगी कि पता नहीं, रास्ता कैसा है। अकेले आदमी को हिम्मत जुटानी पड़ती है। हमने अकेले होने
की हिम्मत न जाने कब की खो दी है, हमें इसका पता ही नहीं
है, हम अकेले हो ही नहीं सकते। हमें भीड़ चाहिए हमेशा
साथ, तो ही हम खड़े हो सकते हैं। फिर हम युवा नहीं रह
जाते। फिर हम युवा नहीं रह जाते। फिर वह जो यंग माइंड, युवा
मस्तिष्क है वह हममें पैदा नहीं हो पाता। आने वाला देश का भविष्य चाहता है, अकेले होने का साहस एक - एक युवक में पैदा होना
चाहिए। जिस दिन एक - एक युवक अकेला खड़े होने की हिम्मत करता है, उस दिन पहली बार उसकी आत्मा प्रकट होनी शुरू होती है, उसकी प्रतिभा प्रकट होनी शुरू होती है। जब वह कहे - कि चाहे सारी दुनिया
यह कहती हो लेकिन जब तक मेरा विवेक नहीं मानता, मैं
अकेला खड़ा रहूंगा। मैं सारी दुनिया के प्रवाह के विपरीत तैरूंगा। नदी इस तरफ जाती
है इस तरफ मुझे पूरब प्रतीत नहीं होता, मुझे नहीं तर्क कहता, मेरा विवेक कहता है कि मैं पूरब जाऊं ! मैं पश्चिम की तरफ तैरूंगा टूट
जाऊंगा, नदी की धारा की दिशा में; लेकिन कोई फिकर नहीं, धारा के साथ तभी तैरूंगा
जब मेरा विवेक मेरे साथ होगा। जिस दिन कोई व्यक्ति जीवन की धारा के विपरीत अपने
विवेक के अनुकूल तैरने की कोशिश करता है, पहली बार उसके
जीवन में कोई चुनौती आती है, वह चैलेंज! वह संघर्ष आता
है, वह स्ट्रगल आती है, जिस
संघर्ष और चुनौती में से गुजर कर उसकी आत्मा निखरती है, साफ होती है। आग से गुजर कर पहली दफे उसकी आत्मा कुंदन बनती है, स्वर्ण बनती है; लेकिन वह साहस हमने खो दिया
है। अकेले होने की हिम्मत हमने खो दी है।
क्या आप युवक हैं ? अगर युवक हैं तो जीवन में अकेले खड़े होने की हिम्मत जुटानी पड़ती है और
ध्यान रहे, अकेले खड़े होने का अर्थ होता है, विवेक को जगाना। क्योंकि जो विवेक को न जगा सके वह अकेला खड़ा नहीं हो सकता
है। इसलिए तीसरी बात आने वाला भविष्य चाहता है कि इस देश में, व्यक्ति-व्यक्ति के भीतर विवेक, बोध, समझ, अंडरस्टैंडिंग को जगाने की उत्सुकता
जन्में। क्योंकि अकेला आदमी तभी अकेला हो सकता है, चाहे
दुनिया उसके साथ न हो, अगर उसके पास उसका विवेक साथ है।
उसकी आँखों में स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि जो वह कर रहा है, वह ठीक है। उसका तर्क उसके प्राण उससे कह रहे हैं कि वह जो कर रहा है, वह ठीक है, चाहे सारी दुनिया विपरीत हो।
हमारा युवक जीवन के सामने बैंकरप्ट, दिवालिया की तरह खड़ा हो जाता
है। उसके पास कुछ भी नहीं है। कुछ सर्टिफिकेट हैं, कागज
के कुछ ढेर हैं। उनका वह पुलिंदा बांध कर जिंदगी के सामने खड़ा हो जाता है। उसके
पास भीतर और कुछ भी नहीं है। यह बड़ी दयनीय अवस्था है। यह बहुत दुखद है और फिर इस
स्थिति में फ्रस्ट्रेशन पैदा होता है, विषाद पैदा होता
है, तनाव पैदा होता है, क्रोध
पैदा होता है। और इस क्रोध में वह हिंसक होकर तोड़ने - फोड़ने में लग जाता है, चीजें नष्ट करने में लग जाता है। आज सारे देश का बच्चा-बच्चा क्रोध से भरा हुआ
है। क्रोध में वह कुर्सियां तोड़ रहा है, फर्नीचर तोड़ रहा है, बस जला रहा है। नेता हैं मुल्क के, वे कहते हैं
कुर्सियां मत तोड़ो, बस मत जलाओ, मकान मत मिटाओ, खिड़कियां मत तोड़ो। लेकिन नेता
भी जानते हैं कि वे भी नेता कुर्सियां तोड़ कर, बसें जला
कर और कांच फोड़ कर हो गए हैं। उनको पक्का पता है, उनकी
सारी नेतागीरी इसी तरह की तोड़-फोड़ पर निर्भर होकर, खड़ी
हो गई है। यह बच्चे भी जानते हैं कि नेता होने की तरकीब यही है कि कुर्सियां तोड़ो, मकान तोड़ो, आग लगाओ।
इसलिए वे पुराने नेता जो कल यही सब तोड़-फोड़ करते
रहे थे, आज
यही नेता ही दूसरे को समझाएंगे। पर यह समझ में आने वाली बात नहीं है। फिर उन
नेताओं को यह भी पता नहीं है कि कुर्सियां तोड़ी जा रही हैं। यह सिर्फ सिंबालिक है।
कुर्सियों से बच्चों को क्या मतलब हो सकता है? किस आदमी
को कुर्सी तोड़ने से मतलब हो सकता है! बस जलाने से किसको मतलब हो सकता है? बस से किसकी दुश्मनी है? ऐसा पागल आदमी खोजना
मुश्किल है जिसकी बस से भी कोई दुश्मनी हो, कि कांच
तोड़ने में कुछ रस आता हो। नहीं, यह सवाल नहीं है। यह
सवाल ही नहीं है। यह बिलकुल असंगत है। इससे कोई संबंध नहीं है। युवक जो भीतर से
अशांत, पीड़ित और परेशान मुख्य बात तो यही है। और परेशान
आदमी कुछ भी चीज तोड़ लेता है तो थोड़ी सी राहत मिलती है। थोड़ा रिलैक्सेशन मिलता है।
कुछ भी तोड़ ले।
युवक के पास क्रोध तो बहुत है, शांति बिलकुल नहीं है। इसलिए सारा उपद्रव हो रहा है। उपद्रव बढ़ेगा, उपद्रव गहरा होगा। अभी वे मकान तोड़ रहे हैं, कल
वह मकान जलाएंगे। अभी वह बसें जला रहे हैं, कल वह
आदमियों को जलाएंगे। पचास साल के भीतर, आदमी जलाए
जाएंगे, अगर युवक का क्रोध इसी तरह गति करता रहा, और अगर उसे शांति की दिशा में ले जाने का कोई उपाय नहीं मिल सका तो। मनुष्य की चेतना ने ज्ञान तो
अर्जित कर लिया है, बुद्धिमत्ता
अर्जित नहीं की। मनुष्य की चेतना ने सूचनाएं तो इकट्ठी कर ली हैं, लेकिन चेतना ज्ञानवान नहीं हो पाई है। मनुष्य ने महत्वाकांक्षा तो सीख ली
है, एंबीशन तो सीख ली है। सारी शिक्षा का एक ही फल हुआ
है कि आदमी को महत्वाकांक्षी बना दिया है, लेकिन शांति
उसके पास बिलकुल नहीं है। तो देश के भविष्य को मतलब युवाओं को ध्यान और प्रेम के माध्यम
से शांति का एक आंदोलन चलाना होगा। व्यक्ति को चाहिए शांति और समाज को चाहिए
क्रांति। ये दो बातें भविष्य में आने वाले क्रांति दल के बुनियादी आधार बनने चाहिए
- व्यक्ति को चाहिए शांति और समाज को चाहिए क्रांति। व्यक्ति हो इतना शांत कि उसके
भीतर कोई पीड़ा, कोई
दुख, कोई क्रोध न रह जाए। और समाज है गलत, समाज है रुग्ण, समाज है अग्ली, समाज है कुरूप। हजारों साल की बेवकूफियों के आधार पर समाज हमारा निर्मित
है। उन सब को आग लगा देनी है, उन बेवकूफियों को, उन सबको जिनके आधार पर हम खड़े हैं। अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि सारे
सामाजिक तानों – बानों को हम इज्जत जैसे
आत्मघाती एवं बेबुनियाद तथ्यों से जोड़ देते है। कुछ भी सामाजिक लीक से हटकर करना या
सोचना सीधा हमारे इज्जत पर प्रहार करता है और लीक पर चलने वाले भारतीय नवयुवा ऐसा
सपनों में भी नहीं सोच सकते, ऐसा कुछ सोचने या करने पर उनके
माँ-बाप की इज्जत, उनका पीढ़ियों तक का मान सम्मान, पद - प्रतिष्ठा सब कुछ महज सेकेंड में ही जलकर खाक हो जाता है। अब इज्जत
न रही तो जीवन कैसा। हो सकता है सब आत्महत्या करने को निकाल पड़े। धन्य है भारतीय
युवा। इन सब मूर्खता भरी बातों पर मैं अगर हँसने बैठूँ तो शायद मैं रात तक हँसता
ही रहूँ और सुबह को मेरा दिवालिया निकल जाए सारे समाज में। यह जो ऊपर ध्यान और प्रेम की जो बात कही
गयी है उस पर विस्तृत रूप से चर्चा होगी जुड़े रहिए।
इस देश में युवक पैदा ही
शायद नहीं होते हैं। 'जब
ऐसा मैं कहता हूं तो उसका अर्थ यही है कि हमारा चित्त जीवंत नहीं है। वह जो
जीवन का उत्साह, वह जो जीवन का आनंद और संगीत
हमारे हृदय की वीणा पर होना चाहिए, वह नहीं है। आंखों
में, प्राणों में, रोम—रोम में, वह जो जीवन को जीने की उद्दाम लालसा
होनी चाहिए, वह हममें नहीं है। जीवन को जियें, इससे पहले ही हम जीवन से उदास हो जाते हैं। जीवन को जानें, इससे पहले ही हम जीवन को जानने की जिज्ञासा की हत्या कर देते हैं।
इस देश में युवक जीवन के उस उद्दाम वेग से आपूरित
नहीं मालूम पड़ते और न ऐसा लगता है कि उनके ह्रदय में, उनके प्राणों में उन शिखरों
को छूने की कोई आकांक्षा है, जो जीवन के शिखर हैं। न
ऐसा लगता है कि उन अज्ञात सागरों को खोजने के लिए प्राणों में कोई प्रबल पीड़ा है, उन सागरों को जो जीवन के सागर हैं, न जीवन के अंधेरे को, न जीवन के प्रकाश को, न जीवन की गहराई को, न जीवन की ऊंचाई को, न जीवन की हार को, न जीवन की जीत को, कुछ भी जानने का जो उद्दाम वेग, जो गति, जो ऊर्जा होनी चाहिए, वह युवक के पास नहीं है।
इसलिए युवक भारत में हैं - ऐसा कहना केवल औपचारिकता है, खानापूर्ति है, सत्यता नहीं है।
भारत में युवक नहीं हैं, भारत हजारों साल से बूढ़ा देश
है। उसमें बूढ़े पैदा होते हैं, बूढ़े ही जीते हैं और
बूढ़े ही मर जाते हैं। जवान पैदा ही नहीं होते।
हम इतने बूढ़े हो गये है कि हमारी जड़ें ही जीवन के
रस को नहीं खींचती और न हमारी शाखाएं जीवन के आकाश में फैलती हैं और न हमारी
शाखाओं में जीवन के पक्षी बसेरा करते हैं और न हमारी शाखाओं पर जीवन का सूरज उगता
है और न जीवन का चांद चांदनी बरसाता है। सिर्फ धूल जमती जाती है, जड़ें सूखती जाती हैं, पत्ते कुम्हलाते जाते
हैं। फूल पैदा नहीं होते, फल आते नहीं हैं। वृक्ष हैं, न उनमें पत्ते हैं, न फूल हैं। सूखी शाखाएं खड़ी
हैं। ऐसा अभागा हो गया है यह देश!
जब युवकों के संबंध में कुछ बोलना हो तो पहली बात
यही ध्यान देनी जरूरी है। यदि युवक कोई शारीरिक अवस्था है, तब तो हमारे पास भी युवक
हैं। युवक अगर कोई मानसिक दशा है, स्टेट आफ माइंड है, तो युवक हमारे पास नहीं हैं।
अगर युवक हमारे पास होते तो देश में इतनी गंदगी, इतनी सड़ांध, इतना सड़ा हुआ समाज जीवित रह सकता था? कभी की
उन्होंने आग लगा दी होती। अगर युवक हमारे पास होते, तो
हम एक हजार साल तक गुलाम रहते? कभी की गुलामी को
उन्होंने उखाड़ फेंका होता। अगर युवक हमारे पास होते तो हम हजारों—हजारों साल तक दरिद्रता, दीनता और दुख में बिताते? हमने कभी की दरिद्रता मिटा दी होती या खुद मिट गये होते।
लेकिन नहीं, युवक शायद नहीं हैं। युवक हमारे पास होते तो
इतना पाखंड इतना अंधविश्वास पलता इस देश में? क्या युवक बरदाश्त करते ?
लेकिन युवक मुल्क में नहीं हैं, इसलिए किसी भी तरह की मूढ़ता
चलती है, इसलिए मुल्क में किसी भी तरह का अंधकार चलता
है। युवकों के होने का सबूत नहीं मिलता देश को देखकर! क्या चल रहा है देश में? युवक किसी भी चीज पर राजी हो जाते हैं! वह युवक कैसा जिसके भीतर विद्रोह न हो, रिवोल्युशन न हो? युवक होने का मतलब क्या हुआ? जो गल्ती के सामने झुक
जाता हो, उसको युवक कैसे कहें? जो टूट जाता हो लेकिन झुकता न हो, जो मिट जाता
हो लेकिन गलत को बरदाश्त न करता हो, वैसी स्पिरिट
(आत्मा), वैसी चेतना का नाम ही युवक होना है। टु बी यंग
— युवा होने का एक ही मतलब है। एक विद्रोही आत्मा, जो झुकना नहीं जानती, टूटना जानती है। जो बदलना चाहती है व्यर्थ हो चुके जीवन के सभी आयामों को अगर ऐसी आत्मा
युवक में है तो उसे ही हम वास्तविक युवक कह सकते है। नवयुवा जो जिंदगी को नयी दिशाओं
में, नये आयामों में ले जाना चाहते हैं, जो जिंदगी को परिवर्तित करना चाहते हैं। क्रांति की वह उद्दाम आकांक्षा ही
युवा होने के लक्षण हैं।
1962 में चीन में अकाल की हालत थी। ब्रिटेन के कुछ
भले मानुषों ने एक बड़े जहाज पर बहुत सा सामान, बहुत सा भोजन, कपड़े, दवाइयां भरकर वहां भेजे। हम अगर होते तो चन्दन तिलक लगाकर फूल मालाएं
पहनाकर उस जहाज की पूजा करते, लेकिन चीन ने उसको वापस
भेज दिया और जहाज पर बड़े—बड़े अक्षरों में लिख दिया, हम मर जाना पसंद करेंगे, लेकिन भीख स्वीकार
नहीं कर सकते। शक होता है कि यहां कुछ जवान लोग होंगे!
जवान ही यह हिम्मत कर सकता है कि भूखे मरते देश
में, बाहर
से भोजन आया हो और लिख दे जहाज पर कि हम भूखों मर सकते हैं, लेकिन भीख नहीं मांग सकते।
भूखा मरना इतना बुरा नहीं है, भीख मांगना बहुत बुरा है।
लेकिन जवानी हो तो बुरा लगे, भीतर जवान खून हो तो चोट लगे, अपमान हो। हमारा अपमान नहीं होता! हम शांति से अपमान को झेलते चले जाते
हैं! हम बड़े तटस्थ हैं, अपमान को झेलने में कुछ भी हो
जाये, हम आंख बंद करके झेल लेते हैं। यह तो संतोष का, शांति का लक्षण है कि जो भी हो, उसको झेलते रहो, बैठे रहो चुपचाप और झेलते रहो। हजारों साल से देश दुख झेल—झेल कर मर गया तो कैसे हम स्वीकार
कर लें कि देश के पास जवान आदमी हैं, अथवा युवक हैं।
युवक देश के पास नहीं हैं। और इसलिए पहला काम तथाकथित युवकों के लिए.. जो
उम्र से युवक दिखायी पड़ते हैं, वह यह है कि वह देश में मानसिक यौवन को पैदा करने की चेष्टा करें। वे शरीर
के यौवन को मानकर तृप्त न हो जायें। आत्मिक यौवन, स्प्रीचुअल
(आध्यात्मिक) यंगनेस पैदा करने का एक आदोलन सारे देश में चलना चाहिए। हम इससे राजी
नहीं होंगे कि एक आदमी शकल सूरत से जवान दिखायी पड़ता है तो हम जवान मान लें। हम
इसकी फिक्र करेंगे कि हिन्दुस्तान के पास जवान आत्मा हो।
भारत को एक युवा अध्यात्म चाहिए। युवा अध्यात्म।
बूढा अध्यात्म हमारे पास बहुत है। हमारे पास ऐसा अध्यात्म है, जो बूढ़ा करने की कीमिया है, केमिस्ट्री है। हमारे पास ऐसी आध्यात्मिक तरकीबें हैं कि किसी भी जवान के
आसपास उन तरकीबों का उपयोग करो, वह फौरन बूढ़ा हो जायगा।
हमने बूढ़े होने का राज खोज लिया है, सीक्रेट खोज लिया
है। बूढ़े होने का क्या राज है? बूढ़ा होने का राज है :
जीवन पर ध्यान मत रखो, मौत पर ध्यान रखो। यह पहला
सीक्रेट है। जिंदगी पर ध्यान मत देना, ध्यान रखना मौत
पर। जिंदगी की खोज मत करना, खोज करना मोक्ष की। इस
पृथ्वी की फिक्र मत करना, फिक्र करना परलोक की, स्वर्ग की। यह बूढ़ा होने का पहला सीक्रेट है। जिन - जिन को बूढ़ा होना हो, इसे नोट कर लें। कभी जिंदगी की तरफ मत देखना। अगर फूल खिल रहा हो तो तुम
खिलते फूल की तरफ मत देखना, तुम बैठकर सोचना कि जल्द ही
यह मुरझा जायेगा। यह बूढ़े होने की तरकीब है।
अगर एक गुलाब के पौधे के पास खड़े हों तो फूलों की
गिनती मत करना, कांटों
की गिनती करना की सब असार है, कांटे ही कांटे पैदा होते
हैं। एक फूल खिलता है, मुश्किल से हजार कांटों में।
हजार कांटों की गिनती कर लेना। उससे जिंदगी असार सिद्ध करने में बड़ी आसानी मिलेगी।
अगर दिन और रात को देखो, तो कभी मत देखना कि दो दिन
के बीच एक रात है। हमेशा ऐसा देखना कि दो रातों के बीच में एक छोटा—सा दिन है।
बूढ़े होने की तरकीब कह रहा हूं। जिंदगी में जहां
अंधेरे हों, उन
अँधेरों पर अत्यधिक ध्यान देना और जहां रोशनी दिखाई पड़े, वहाँ ज्यादा ध्यान मत देना। जहां फूल दिखाई पड़े, गिनती मत करना और फौरन सोच लेना क्या रखा है फूल में? क्षण भर को है, अभी खिला है, अभी मुरझा जायेगा। और कांटा स्थायी है, शाश्वत
है, सनातन है, न कभी खिलता
है, न कभी मुरझाता है। हमेशा है। इन बातों पर ध्यान
देने से आदमी बहुत जल्दी बूढ़ा हो जाता है।
बूढे का जिंदगी को देखने का ढंग है - दुखद को देखना, अंधेरे को देखना, मौत को देखना, कांटे को देखना।
हिंदुस्तान हजारों साल से दुखद को देख रहा है।
जन्म भी दुख है, जीवन
भी दुख है, मरण भी दुख है! प्रियजन का बिछुड़ना दुख है, अप्रियजन का मिलना दुख है, सब दुख है! मां के
पेट का दुख झेलो, फिर जन्म का दुख झेलो, फिर बड़े होने का दुख झेलो, फिर जिंदगी में
गृहस्थी के चक्कर झेलो, फिर बुढ़ापे की बिमारियां झेली, फिर मौत झेलो, इस तरह जीवन में दुखों की एक लम्बी
कथा है। बूढ़ा होना हो तो इस कथा का स्मरण करना चाहिए। बूढ़ा होना है तो बगीचे में नहीं जाना चाहिए, हमेशा मरघट पर बैठकर ध्यान
करना चाहिए, जहां आदमी जलाये जाते हों। सुंदर से बचना
चाहिए, असुंदर को देखना चाहिए। विकृत को देखना चाहिए, स्वस्थ को छोडना चाहिए। सुख मिले तो कहना चाहिए क्षणभंगुर है, अभी खत्म हो जायेगा। दुख मिले तो छाती से लगाकर बैठ जाना चाहिए। और सदा
आंखें रखनी चाहिए जीवन के उस पार, कभी इस जीवन पर नहीं।
इस जीवन को समझना चाहिए कि यह एक वेटिंग रूम है। जैसे किसी स्टेशन पर एक वेटिग रूम हो, उसमें बैठते हैं आप थोड़ी
देर। वहीं छिलके फेंक रहे हैं वहीं पान थूक रहे हैं, क्योंकि
हमको क्या करना है, अभी थोड़ी देर में हमारी ट्रेन आयेगी
और फिर हम चले जायेंगे। तुमसे पहले जो बैठा था, वह भी
वेटिंग रूम के साथ यही सदव्यवहार कर रहा था, तुम भी वही
सदव्यवहार करो, तुम्हारे बाद वाला भी वही करेगा। वेटिंग रूम गंदगी का एक घर बन जायेगा, क्योंकि किसी को क्या मतलब
है। हमको थोड़ी देर रुकना है तो आंख बंद करके राम—राम जप के
गुजार देंगे। अभी ट्रेन आती है, चली जायेगी।
जिंदगी के साथ जिन लोगों की आंखें मौत के उस पार टिकी हैं, उनका व्यवहार वेटिंग रूम का व्यवहार है। वे कहते हैं, क्षण भर की तो जिंदगी है; अभी जाना है, क्या करना है हमें। हिंदुस्तान के संत—महात्मा यही
समझा रहे हैं लोगों को— क्षणभंगुर है जिंदगी, इसके मायामोह में मत पड़ना। ध्यान वहां रखना आगे, मौत के बाद। इस छाया में सारा देश बूढा हो गया है।
युवा होने के लक्षण - अगर जवान होना है तो जिंदगी को देखना, मौत को लात मार देना। मौत से
क्या प्रयोजन है? जब तक जिंदा हैं, तब तक जिंदा हैं। तब तक मौत नहीं है। सुकरात मर रहा था। ठीक मरते वक्त जब
उसके लिए बाहर जहर घोला जा रहा था। वह जहर घोलने वाला धीरे—धीरे
घोल रहा है। वह सोचता है, जितने देर सुकरात और जिंदा रह
ले, अच्छा है। जितनी देर लग जाय। वक्त हो गया है, जहर आना चाहिए। सुकरात उठकर बाहर जाता है और
पूछता है मित्र, कितनी देर और है? उस आदमी ने कहा, तुम पागल हो गये हो सुकरात, मैं देर लगा रहा हूं इसलिए कि थोड़ी देर तुम और रह लो, थोड़ी देर सांस तुम्हारे भीतर और आ जाय, थोड़ी
देर सूरज की रोशनी और देख लो, थोड़ी देर खिलते फूलों को, आकाश को, मित्रों की आंखों को और झांक लो, बस थोड़ी देर और। नदी भी समुद्र में गिरने के पहले पीछे लौटकर देखती है।
तुम थोड़ी देर लौटकर देख लो। मैं देर लगाता हूं तुम जल्दी क्यों कर रहे हो? तुम इतनी उतावली क्यों किये जा रहे हो?
सुकरात ने कहा, मैं जल्दी क्यों किये जा रहा हूं! मेरे प्राण
तड़पे जा रहे हैं मौत को जानने को। नयी चीज को जानने की मेरी हमेशा से इच्छा रही
है। मौत बहुत बड़ी नयी चीज है; सोचता हूं देखूं क्या चीज
है!यह आदमी जवान है, वास्तविक रूप से जवान है। मौत को भी देखने के
लिए इसकी आतुरता है। मित्र कहने लगा कि थोड़ी देर और जी लो। सुकरात ने कहा, जब तक मैं जिन्दा हूं मैं यह देखना चाहता हूं
कि जहर पीने से मरता हूं कि जिंदा रहता हूं। लोगों ने कहा कि अगर मर गये तो?
उसने कहा कि यदि मर ही गये तो फिक्र ही खत्म हो
गयी। चिंता का कोई कारण न रहा और जब तक जिंदा हूं जिंदा हूं। जब मर ही गये, चिंता की कोई बात नहीं, खत्म हो गयी बात। लेकिन जब तक मैं जिंदा हूं तब तक मैं मरा हुआ नहीं हूं
और पहले से क्यों मर जाऊं? मित्र सब डरे हुए बैठे हैं
पास, रो रहे हैं, जहर की
घबराहट आ रही है।
वह सुकरात प्रसन्न है! वह कहता है, जब तक मैं जिन्दा हूं तब तक
मैं जिंदा हूं तब तक जिंदगी को जानूं। और सोचता हूं कि शायद मौत भी जिंदगी में एक
घटना है। सुकरात को बूढ़ा नहीं किया जा सकता। मौत सामने खड़ी
हो जाय तो भी यह बूढ़ा नहीं होता।
और हम ? जिंदगी सामने खड़ी रहती है और बूढ़े हो जाते
हैं। यह रुख भारत में युवा मस्तिष्क को पैदा नहीं होने देता है। जीवन का
विषादपूर्ण चित्र फाड़कर फेंक दो। और उसमें जिंदगी के दुख और जिंदगी के विषाद को
बढ़ा - चढ़ा कर बतलाते हैं; वे जिंदगी के दुश्मन हैं, देश में युवा को पैदा होने देने में दुश्मन हैं। वह युवक को पैदा होने के
पहले ही उसे बूढ़ा बना देते हैं।
रवीन्द्रनाथ मर रहे थे। एक बूढे मित्र आये और
उन्होंने कहा, अब
मरते वक्त तो भगवान से प्रार्थना कर लो कि अब दोबारा जीवन में न भेजे। अब आखिरी
वक्त प्रार्थना कर लो कि अब आवागमन से छुटकारा हो जाये। अब इस ख्वाब, इस गंदगी के चक्कर में न आना पड़े। रवीन्द्रनाथ ने कहा, क्या कहते हैं आप? मैं
और यह प्रार्थना करूं? मैं तो मन ही मन यह कह रहा हूं
कि हे प्रभु, अगर तूने मुझे योग्य पाया हो, तो बार-बार तेरी पृथ्वी पर भेज देना। बड़ी रंगीन थी, बड़ी सुन्दर थी; ऐसे फूल नहीं देखे, ऐसा चांद, ऐसे तारे, ऐसी आंखें, ऐसा सुन्दर चेहरा! मैं दंग रह
गया हूं। मैं आनन्द से भर गया हूं। अगर तूने मुझे योग्य पाया हो तो - हे परमात्मा, बार—बार इस दूनिया में मुझे भेज देना। मैं तो यह
प्रार्थना कर रहा हूं; मैं तो डरा हुआ हूं कि कहीं मैं
अपात्र न सिद्ध हो जाऊं कि दोबारा न भेजा जाऊं। रवीन्द्रनाथ को बूढ़ा बनाना बहुत मुश्किल है। शरीर
बूढ़ा हो जायेगा। लेकिन इस आदमी के भीतर जो आत्मा है, वह जवान है, वह जीवन
की मांग कर रही है। रवीन्द्रनाथ ने मरने के कुछ ही घड़ी पहले, कुछ कड़ियां लिखवायी। उनमें
दो कड़ियां हैं। देखा तो मैं नाचने लगा! क्या प्यारी बात कही है!
किसी मित्र ने रवीन्द्रनाथ को कहा कि तुम तो
महाकवि हो, तुमने
छह हजार गीत लिखे, जो संगीत में बांधे जा सकते है! Percy
Bysshe Shelley जो पश्चिमी देशों के महानतम कवियों में से एक
थे। उनके बारे में पश्चिम के लोग कहते हैं, उसके तो
सिर्फ दो हजार गीत संगीत में बंध सकते हैं, तुम्हारे तो
छह हजार गीत! तुमसे बड़ा कोई कवि दुनिया में कभी नहीं हुआ।
रवीन्द्रनाथ की आंखों से आंसू बहने लगे।
रवीन्द्रनाथ ने कहा क्या कहते हो, मैं तो भगवान से कह रहा हूं कि अभी मैंने गीत गाये कहां थे, अभी तो साज बिठा पाया था और विदा का क्षण आ गया। अभी तो ठोक पीटकर तंबूरा
ठीक किया था सिर्फ, अभी मैंने गीत गाया ही कहां था। अभी
तो मैंने तंबूरे की तैयारी की थी, ठोक पीटकर तैयार हो
गया था, साज बैठ गया था। अब मैं गाने की चेष्टा करता और
यह तो विदा का क्षण आ गया। और मेरे तंबूरे के ठोकने पीटने से लोगों ने समझ लिया है
कि यह महाकवि हो गया है! भगवान से कह रहा हूं कि गीत का साज तैयार हो गया है और आप मुझे विदा कर रहे हो ? अब तो मौका आया था कि मैं गीत गाऊं। मरते रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि अभी तो
मौका आया है कि मैं गीत गाऊं!
वह यह कहे रहे थे कि अभी मौका आया था कि मैं जवान
हुआ था। वह यह कह रहे हैं कि अब तो मौका आया था कि सारी तैयारी हो गयी थी और मुझे
विदा कर रहे हो। बूढ़ा आदमी यह कह सकता है तो फिर वह आदमी बूढ़ा नहीं है।
अगर जवान होना है तो जिंदगी को उसको सामने से पकड़
लेना पड़ेगा। एक एक क्षण जिन्दगी भागी जा रही है, उसे मुट्ठी में पकड़ लेना पड़ेगा, उसे जीने की पूरी चेष्टा करनी पड़ेगी। और जी केवल वे ही सकते हैं जो उसमें
रस का दर्शन करते हैं। और वहां दोनों चीजें है जिन्दगी के रास्ते पर, कांटे भी हैं और फूल भी। बूढ़ा होना हो वे कांटों की गिनती कर लें। जिन्हें
जवान होना हो वे फूल को गिन लें।
और मैं कहता हूं कि करोड़ कांटे भी फूल की एक
पंखुड़ी के मुकाबले कम हैं। एक गुलाब की छोटी—सी पंखुड़ी इतना बड़ा मिरेकल है, इतना बड़ा चमत्कार है कि करोड़ों कांटे इकट्ठे कर लो, उससे और कुछ सिद्ध नहीं होता उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि बड़ी
अदभुत है यह दुनिया। जहां इतने कांटे हैं, वहां मखमल
जैसा गुलाब का फूल पैदा हो सका है। उससे सिर्फ इतना सिद्ध होता है और कुछ भी सिद्ध
नहीं होता। लेकिन यह देखने कि दृष्टि पर निर्भर है कि हम कैसे देखते हैं।
पहली बात, जिन्दगी पर ध्यान चाहिए। मौत पर नहीं। तो आदमी जवान से जवान होता चला जाता है। बुढ़ापे के अंतिम
क्षण तक मौत द्वार पर भी खड़ी हो तो भी आदमी वैसा ही जवान होता है।
दूसरी बात, जो आदमी जीवन में सुंदर को देखता है, जो आदमी जवान है; वह आदमी असुंदर को मिटाने के
लिए लड़ता भी है। जवानी फिर देखती नहीं, जवानी लड़ती भी
है। जवानी स्पेक्टेटर है, जवानी तमाशबीन नहीं है कि तमाशा देख रहे हैं
खड़े होकर।
जवानी का मतलब है जीना, तमाशगीरी नहीं। जवानी का मतलब है सृजन। जवानी का मतलब है सम्मिलित होना, पार्टिसिपेशन।
रास्ते के किनारे खड़े होकर अगर जवानी की यात्रा को
देखते हो, तो तुम तमाशबीन हो; तुम जवान नहीं हो, एक निष्क्रिय देखने वाला। निष्क्रिय देखने वाला आदमी जवान नहीं हो सकता।
जवान सम्मिलित होता है जीवन में। और जिस आदमी को सौंन्दर्य से प्रेम है, जिस आदमी को जीवन का आल्हाद
है, वह जीवन को बनाने के लिए श्रम करता है, सुन्दर बनाने के लिए श्रम करता है। वह जीवन की कुरूपता से लड़ता है, वह जीवन को कुरूप करने वालों के खिलाफ विद्रोह करता है। कितनी कुरूपता है
समाज में और जिन्दगी में ?
अगर तुम्हें प्रेम है सौंदर्य से तो सौंदर्य को पैदा करो, क्रियेट, करो; जिन्दगी
को सुंदर बनाओ। आनंद की उपलब्धि और आनंद की आकांक्षा और अनुभूति को बिखराओ। फूलों
को चाहते हो तो फूलों को पैदा करने की चेष्टा में संलग्र हो जाओ। जैसा तुम चाहते
हो जिन्दगी को वैसी बनाओ।
जवानी मांग करती है कि तुम कुछ करो, खड़े होकर देखते मत रहो।
हिन्दुस्तान की जवानी तमाशबीन है। हम ऐसे ही देखते
रहते हैं खड़े होकर, जैसे
कोई जुलूस जा रहा है। वैसे रुके हैं, देख रहे हैं; कुछ भी हो रहा है! शोषण हो रहा है, जवान खड़ा
हुआ देख रहा है! बेवकूफियां हो रही हैं, जवान खड़ा देख
रहा है! बुद्धिहीन लोग देश को नेतृत्व दे रहे हैं, जवान
खड़ा देख रहा है। जड़ता धर्मगुरु बनकर बैठी है, जवान खड़ा
हुआ देख रहा है! सारे मुल्क के हितों को नष्ट किया जा रहा हैं, जवान खड़ा हुआ देख रहा है! यह कैसी जवानी है ?
कुरूपता से लड़ना पड़ेगा, असौंदर्य से लड़ना पड़ेगा, शोषण से लड़ना पड़ेगा, जिन्दगी को विकृत करने
वाले तत्वों से लड़ना पड़ेगा। जो आदमी जवान होता है, वह
सागर की लहरों और तूफानों में जीता है, फिर आकाश में
उसकी उड़ान होनी शुरू होती है। लेकिन लड़ोगे किससे तुम ? व्यक्तिगत लड़ाई
ही नहीं हैं यह, सामूहिक लड़ाई की बात है। और बिना फाइट
के, बिना लड़ाई के, जवानी
निखरती नहीं। जवानी सदा लड़ाई के बिना निखरती नहीं। जवानी सदा लड़ती है और निखरती
है, जितनी लड़ती है, उतनी
निखरती है। सुंदर के लिए, सत्य के लिए जवानी जितनी लड़ती
है, उतनी निखरती है। लेकिन क्या लड़ोगे?
तुम्हारे पिता आ जायेंगे, तुम्हारी गर्दन में रस्सी
डालकर कहेंगे, इस लड़की से विवाह करो और घोड़े पर बैठ
जाओ! तुम जवान हो? और तुम्हारे बाप लड़की के पिता से
जाकर कहेंगे कि पाँच लाख रुपये लेंगे और तुम मजे से मन में गिनती करोगे कि पाँच लाख में चरपहिया
खरीदें कि क्या करें? तुम्हें क्या लगता है कि तुम जवान
हो? ऐसी जवानी दो कौड़ी की जवानी है।
जिस लड़की को तुमने कभी चाहा नहीं, जिस लड़की को तुमने कभी प्रेम
नहीं किया, जिस लड़की को तुमने कभी छुआ नहीं, उस लड़की से विवाह करने के लिए तुम पैसे के लिए राजी हो रहे हो? समाज की व्यवस्था के लिए राजी हो रहे हो? तो
तुम जवान नहीं हो। तुम्हारी जिन्दगी में कभी भी वे फूल नहीं खिलेंगे, जो युवा मस्तिष्क छूता है। तुम युवा हो ही नहीं; तुम एक मिट्टी के लौदें हो, जिसको कहीं भी
सरकाया जा रहा हो, कहीं पर भी रख लिया जा रहा हो। कुछ
भी नहीं तुम्हारे मन में, न संदेह है, न जिज्ञासा है, न संघर्ष है, न पूछ है, न इन्क्वायरी है कि यह क्या हो रहा
है! कुछ भी हो रहा है, हम देख रहे हैं खड़े होकर! नहीं, ऐसे जवानी नहीं पैदा होती है।
हम जिसके लिए लड़ते हैं, अंततः वही हम हो जाते हैं। लड़ो सुन्दर के लिए और तुम सुन्दर हो जाओगे। लड़ो
सत्य के लिए और तुम सत्य हो जाओगे। लड़ो श्रेष्ठ के लिए तुम श्रेष्ठ हो जाओगे। और अगर
नहीं लड़ना है तो मरो—सड़ो तुम—खड़े—खड़े सडोगे और मर जाओगे और कुछ भी नहीं होओगे।
जिंदगी संघर्ष है और संघर्ष से ही पैदा होती है जवानी।
जैसा हम संघर्ष करते हैं, वैसे
ही हो जाते हैं। हिन्दुस्तान में कोई लड़ाई नहीं है, कोई फाइट नहीं है! सब कुछ हो रहा है, अजीब हो रहा है। हम सब शांति से देख रहे है, सब
हो रहा है और होने दे रहे हैं! अगर हिन्दुस्तान की जवानी खड़ी हो जाय, तो हिन्दुस्तान में फिर ये सब नासमझियां नहीं हो सकती हैं, जो हो रही हैं। एक आवाज में टूट जायेंगी। क्योंकि जवान नहीं है तो कुछ भी
हो रहा है। मैं यह दूसरी बात कहता हूं। लड़ाई के मौके खोजना सत्य के लिए, ईमानदारी के लिए न कि स्वार्थ एवं असत्य के लिए।
अगर अभी न लड़ सकोगे तो बुढ़ापे में कभी नहीं लड़
सकोगे। अभी तो मौका है कि ताकत है, अभी मौका है कि शक्ति है, अभी मौका है कि अनुभव ने तुम्हें बेईमान नहीं बनाया है। अभी तुम निर्दोष
हो, अभी तुम लड़ सकते हो, अभी
तुम्हारे भीतर आवाज उठ सकती है कि यह गलत है। जैसे—जैसे उम्र बढ़ेगी, अनुभव बढ़ेगा चालाकी बढ़ेगी। अनुभव से ज्ञान नहीं बढ़ता है, सिर्फ कनिंगनेस बढ़ती है, चालाकी बढ़ती है। अनुभवी आदमी चालाक हो जाता है, उसकी लड़ाई कमजोर हो जाती है, वह अपना हित देखने लगता है। हमें क्या मतलब है, अपनी
फिक्र करो, इतनी बड़ी दुनिया के झंझट में मत पड़ो। जवान आदमी जूझ सकता है, अभी उसे कुछ पता नहीं। अभी
उसे अनुभव नहीं है चालाकियों का। इसके पहले कि चालाकियों में तुम दीक्षित हो जाओ और
तुम्हारे उपकुलपति और तुम्हारे शिक्षक और तुम्हारे मां—बाप दीक्षांत समारोह में तुम्हें
चालाकियों के सर्टिफिकेट दे दें, उसके पहले लड़ना। शायद
लडाई तुम्हारी जारी रहे, तो तुम चालाकियों में नहीं, जीवन के अनुभवों में दीक्षित हो जाओ। और फिर भी अगर शायद लड़ाई तुम्हारी
जारी रहे, तो वह जो आतमा भीतर छिपी है वह निखर जाये, वह प्रकट हो जाये उसके दर्शन
तुम्हें हो जाये और जिस दिन आदमी अपने भीतर छिपे हुए का पूरा अनुभव करता है, उसी दिन पूरे अर्थों में जीवित होता है।
और मैं कहता हूं कि जो आदमी एक क्षण को भी पूरे
अर्थों में जीवन का रस जान लेता है, उसकी फिर कोई मृत्यु कभी नहीं होती। वह अमृत से
संबंधित हो जाता है।
युवा होना अमृत से संबंधित होने का मार्ग है। युवा
होना आत्मा की खोज है। युवा होना परमात्मा के मंदिर पर प्रार्थना है।
असल में मनुष्य की आत्मा ही तब पैदा होती है, जब कोई आदमी ‘नो’ नहीं कहने की हिम्मत जुटा लेता है। जब कोई कह सकता है, नहीं, चाहे दांव पर पूरी
जिंदगी लग जाती हो। और जब एक बार आदमी नहीं, कहना शुरू कर दे,
‘नहीं’ कहना सीख ले, तब
पहली दफा उसके भीतर इस ‘नहीं’ कहने के
कारण, ‘डिनायल’ के कारण व्यक्ति का
जन्म शुरू होता है। यह ‘न’ की जो रेखा
है, उसको व्यक्ति बनाती है। ‘हां’
की रेखा उसको समूह का अंग बना देती है। इसलिए समूह सदा आज्ञाकारिता
पर जोर देता है। बाप अपने ‘गोबर गणेश’
बेटे को कहेगा कि आज्ञाकारी है। क्योंकि गोबर गणेश बेटे से न
निकलती ही नहीं। असल में ‘न’ निकलने के
लिए थोड़ी बुद्धि चाहिए। हां निकलने के लिए बुद्धि की कोई जरूरत नहीं है। हां तो
कम्प्युटराइज्ड है, वह तो बुद्धि जितनी कम होगी, उतनी जल्दी निकलती है। न तो सोच विचार मांगता है। न तो तर्क मांगता है। जब
न कहेंगे तो पच्चीस बार सोचना पड़ता है। क्योंकि न कहने पर बात खत्म नहीं होती।
शुरू होती है। हां कहने पर बात खत्म हो जाती है। शुरू नहीं होती। बुद्धिमान बेटा होगा तो बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्योंकि बुद्धिमान बेटा बहुत बार
बाप को निर्बुद्धि सिद्ध कर देगा। बहुत क्षणों में बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्योंकि अपने आप को भी वह निर्बुद्धि मालूम पड़ रहा है। बड़ी चोट है,
अहंकार को। वह कठिनाई में डाल देगा। इसलिए हजारों साल से बाप, पीढ़ी, समाज
‘हां’ कहने की आदत डलवा रहा है। उसको
वह अनुशासन कहे, आज्ञाकारिता कहे और कुछ नाम दे लेकिन प्रयोजन एक है। और वह यह है कि विद्रोह नहीं होना चाहिए। बगावती
चित नहीं होना चाहिए। तीसरा सूत्र है कि अगर चित्त चाहिए हो वह तो सिर्फ
बगावती ही हो सकता है। अगर आत्मा चाहिए हो तो वह ‘रिबैलियस’ ही हो सकती है। अगर
आत्मा ही न चाहिए तो बात दूसरी। कन्फरमिस्ट के पास कोई आत्मा नहीं होती।
यह ऐसा ही है, जैसे एक पत्थर पडा है, सड़क
के किनारे। सड़क के किनारे पडा हुआ पत्थर मूर्ति नहीं बनता। मूर्ति तो तब बनता
है। जब छैनी और हथौड़ी उस पर चोट करती और काटती है। जब कोई आदमी ‘न’ कहता है। और बगावत करता है। तो सारे प्राणों पर
छैनी और हथौड़ियां पड़ने लगती है। सब तरफ से मूर्ति निखरना शुरू होती है। लेकिन जब
कोई पत्थर कह देता है ‘’हां’’
तो छैनी हथौड़ी पैदा ही नहीं होती वहां। वह फिर पत्थर ही रह जाता
है। सड़क के किनारे पडा हुआ। लेकिन समस्त सत्ताधिकारियों को चाहे वे पिता हो, चाहे मां, चाहे
शिक्षक हो। चाहे बड़ा भाई हो, चाहे राजनेता हो, समस्त सत्ताधिकारियों को ‘’हां-हुजूर’’ की जमात चाहिए।
जीसस, बुद्ध, महावीर जैसे लोग सभी बगावती है। असल में
मनुष्य जाति के इतिहास में जिनके नाम भी गौरव से लिये जा सकें वे सब बगावती है। युवक जब शक्ति में
पहुंचें उसके पहले ही उसके व्यक्तित्व का आमूल रूपांतरण हो जाए। भीतर से वे शांत
हो जाएं और उनका मस्तिष्क जीवन को बदलने की तेज आग से भर जाए, जीवन
को बदलने की तीव्र पीड़ा उन्हें पकड़ ले। तो जो आज युवक हैं, युवा हैं, बच्चे हैं, कल, कल उनके हाथ में देश होगा। हम चाहें तो बीस
साल में इस देश की पूरी काया पलट कर सकते हैं क्योंकि बीस साल में एक पीढ़ी बदल
जाती है। बीस साल में नई पीढ़ी के हाथ में ताकत आ जाती है। युवकों ने अगर इस पर नहीं सोचा तो यह देश रोज अंधेरे से अंधेरे में
उतरता चला जाएगा। इस देश के पास बचाने का और कोई उपाय नहीं है। न कोई नेता बचा
सकता है इसे, न कोई गुरु बचा सकता है इसे, और न परमात्मा से
की गई प्रार्थनाएं बचा सकती हैं इसे। इसे बचाया जा सकता है तो एक ही हालत में, वह जो युवा आत्मा है, वह जो यंग माइंड है, उसका जन्म हो सके तो इस देश को हम बचा सकते हैं। दूसरा कोई रास्ता नहीं है
।।
महान विचारक एवं दार्शनिक रजनीश चन्द्र जैन के
लेखों से संकलित एवं मेरे द्वारा संपादित। पर ऐसा कहना गलत होगा कि ये लेख सिर्फ उनके
प्रवचनों की श्रंखला है, पर मेरी दृष्टि
में ये लेख एक आत्मिक एवं आध्यात्मिक रूप से जाग्रत मनुष्य की वाणी है और कोई भी जाग्रत
चेतनायुक्त मनुष्य ऐसे ही वचनों को दोहराएगा। समानता वही होगी क्यों कि सत्य अलग अलग
नहीं होता।
कृपया अपने तर्क एवं सवालों को बेझिझक इस नंबर पर Whatsapp कर सकते है – 9690891143 लेख
पूरा पढ़ने के लिए ह्रदय से धन्यवाद। जुड़े रहिएगा जीवन के अन्य गहनतम रहस्यों को जानने
एवं सच से पर्दा उठाने के लिए।