Tuesday 10 September 2019

WHO M I - मैं कौन हूँ ?

Note : बहुत ही दुखद और बड़े अफसोस की बात है कि मुझे अपने लेख का संदर्भ लिखना पड़ रहा है क्यों कि आज के समय में लोग सच को जानने या सुनने के लिए जरा भी उत्सुक नहीं है। मेरे किसी खास मित्र ने जब मेरे लेख को पढ़ा तो उसे कुछ समझ में ही नहीं आया और इसी वजह से उसने लेख बिना पढ़े ही अधूरा छोड़ दिया। मेरे ह्रदय को बड़ा धक्का सा लगा कि वाकई लोग कितने स्वार्थी हो गए है। अगर उन्हे कुछ अच्छा पढ़ने के लिए भी दो तो वो वही पढ़ेंगे जिसमे उनका रस होगा। बाकी चाहे मेरा लेख भले ही जीवन के सुधार एवं मानवजाति के हित में ही क्यों न लिखा गया हो। अब जब लोग पढ़ ही नहीं सकते तो वो हमारे साथ क्या खड़े होंगे? ऐसे अंधे और स्वार्थी लोगों से मेरा विनम्र निवेदन है, कृपया मेरे लेखों से दूर ही रहे और मैंने ये लेख आपके जैसे ह्रदयहीनविचारशून्य पुतलों के लिए नहीं लिखा। मैंने ये लेख उनके लिए लिखा है - जिनके सीने में ह्रदय है और जिनकी आत्मा जाग्रत है। जो चारों तरफ हो रहे अन्यायअत्याचार से विचलित है और इस विचलन के फलस्वरूप जिनके मस्तिष्क में विचार जन्मे हैसवाल जन्मे है और जो हर तरफ चल रहे अन्यायअत्याचार एवं अमानवता के आस्तित्व में विशाल होते रूप को अपनी साहसी और मर्दांनगी भरी भुजाओं के बल पर मिटाने को उठ खड़े हुये है। खूबसूरत एवं शान्तिप्रिय दुनिया बनाने के सपने देखने वालों का तथा बदलाव के लिए उत्सुक युवाओं का मैं ह्रदय से स्वागत करता हूँ। हम सब साथ मिलकर पृथ्वी पर हो रहे हर तरह के अन्याय एवं अत्याचार का विरोध करेंगे और लड़ेंगे। क्यों कि हम इस देश के आधुनिक और वास्तविक युवा है। पुतले या फिर मुर्दे नहीं। एक भारतीय नागरिक होने के नाते ये हमारा नैतिक कर्तव्य भी है कि हम बदलाव के लिए लड़े और गलत का विरोध करे। चलिये मुख्य लेख पर आते है...!
मैं कौन हूँ ? मैंने खोजा नहींमुझे पहले से ही बता दिया गयातुम ये होतुम्हें ऐसे रहना हैतुम्हें समय समय पर ये करना हैऔर हम सब और समाज के अनुसार करना है। क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैऔर हमारे धर्म हैंहमारी जातियाँ हैं और हमारी संस्कृति भी हैजिसका पालन हम सदियों से करते चले आ रहे है। मैंने सोचा - हाँ धर्मसंस्कृति तो महान चीज़ें हैऔर सारी दुनिया इनका पालन कर रही हैतो सब अच्छा ही होगा। मैंने भी सब की तरह होना चाहापर अंतर पाया। एक तरफ मैं थाएक तरफ धर्मसंस्कृति और रिवाजों की बनी दुनियाजो जूझ रही थीजिंदगी सेपाप सेअत्याचार सेघृणा से। मैंने सोचा - ये सब क्या हैये सब तो धर्मसंस्कृतियाँ हमें नहीं सिखातीऔर ये सब तो धर्मसंस्कृति और ईश्वर को मानने वाले लोग हैइनकी ये दशा किसने कीक्या हमारे ईश्वर रचित धर्म ने या धर्मों से बनी संस्कृति ने या संस्कृति से बने रिवाजों ने। मैं शून्य थाकोई उत्तर न था। मैंने सोचा किस से प्रश्न करूँदोस्तों सेमाता-पिता सेया शिक्षकों सेपरंतु प्रश्नों को करने से पहले ही मैं उत्तर पा चुका था।किसी को भी इस दुनिया से शिकायत न थीसिवाय मेरेऐसा क्यों था ? आगे लिखता हूँ...
मैं नहीं जानता पर क्या मुझे ये प्रश्न करना भी चाहिए या नहीं ? क्या वास्तव में ये प्रश्न करने लायक है भी या नहीं। ज्यादातर और समझदार लोगों के लिए ये प्रश्न जैसा कुछ भी नहीं। क्यों कि अगर मैंने उनसे पूछा कि हम मनुष्यों में इतनी घृणा इतना स्वार्थ क्यों है ? बाहर सूनी सड़कों पर इतना अन्याय और अत्याचार क्यों है ? रेप, हत्याएँ, इतनी अमानवता क्यों है ? तो शायद मुझे उत्तर मिलेगा – मुझे अपना दिमागी इलाज करवाना चाहिए, ये भी कोई प्रश्न करने की बात है। ये कलयुग है। जो भी हो रहा है जायज है, सुख के साथ थोड़ा दुख भी होना चाहिए। अगर हर तरफ सुख हो जाएगा तो दुनिया का संतुलन बिगड़ जाएगा और दुनिया नष्ट हो जाएगी। ऐसे कुछ उत्तर मुझे लोगों से मिले है।
फिर मुझे ख्याल आया – अगर मेरे भाई का किसी कारण किसी से झगड़ा हो जाए और वो लोग उसका बेरहमी से कत्ल कर दें। या फिर मेरी अकेली जाती हुयी बहन के साथ कोई अनहोनी हो जाए, तो मुझे ये सोच कर शांत रहना चाहिए कि सुख और दुख का संतुलन न बिगड़े, या फिर ये कलयुग है। कुछ तो इन बातों को ये कहकर टाल देंगे कि ये दुख, ये अत्याचार उसकी किस्मत का हिस्सा थे। निहायत ही मूर्खतापूर्ण सोच है ये। फिर थोड़ी खाना पूर्ति तो करनी ही पड़ेगी, पुलिस आएगी जांच होगी, पैसे भर दिये जाएंगे और खेल खत्म।
अंतत मैं जरा लोगों से पूछना चाहूँगा क्या वास्तव में उनकी दुनिया में इतना सुख आ गया है ? क्या वास्तव में उनके जीवन आनंद से सराबोर हैं ? अगर ऐसा है तो परिणाम उल्टे क्यों निकल रहे हैं ? ये आनंदित लोग इतने अधर्मी, इतने पापी इतने स्वार्थी कैसे हो गए है ? क्या कोई जवाब है ?
सच तो ये है – सर्वत्र विराजमान शक्तिशाली बुराई ने सभी को अपने रंग में रंग लिया है और सब एक जैसे हो गए है।
परंतु मैं आज भी इनकी दुनिया में शांति एवं आनंद खोजता फिर रहा हूँ, अंतत जब आनंद नहीं मिला तो मैंने लोगों से पूछ ही लिया कि आपका आनंद कहाँ है ? तो मुझे कुछ ऐसे आश्चर्यजनक उत्तर मिले जो अत्यंत शर्मनाक थे परंतु सत्य थे। आश्चर्यजनक इसलिए कि ये शराब की बोतलों के रूप में जगह जगह दुकानों पर बिक रहे थे और शर्मनाक इसलिए कि नारी को आनंद के रूप में वेश्यालयों में, होटलों में बेचा व खरीदा जा रहा था, साथ ही साथ उन्हे प्रेमजाल में फँसाकर उनका मानसिक एवं शारीरिक शोषण सरेआम सामाजिक जीवन का हिस्सा बन चुका था। एवं बड़े-बड़े स्टेजों पर चलता हुआ उनका भद्दा सा अशोभनीय एवं अनैतिक नृत्य आनंदमयी था। यही कुछ मुख्य उदाहरण थे जहां लोगों को वास्तविक आनंद की प्राप्ति हो रही थी। सारा समाज इन अनैतिक और शर्मनाक कृत्यों की चपेट में था। और तो और आदर और सम्मान भी इन अनैतिक लोगों का ही होने लगा था। ऐसी विषम परिस्थिति में मैं अकेला चुप चाप सब कुछ देख और सुन रहा था। अंततः मेरे लिए ये फैसला करना बड़ा कठिन साबित हो रहा था की मैं किस राह को चुनूँ। आवाज उठाऊ या शांत रहूँ। विरोध करूँ या इनमें घुल मिलूँ। मेरा ह्रदय मुझे रोकता पर मेरी बुद्धि मुझे सब के जैसा हो जाने को कहती। पर मैंने देखा था समझा था तब जाना था। ये सारी सामाजिक अनैतिकताये, सारे शर्मनाक कृत्य इस बुद्धि की ही उपज थे। ह्रदय का कहीं कोई आस्तित्व शेष न रह गया था। मेरे अंदर मौजूद ह्रदय मुझे रोक रहा था और मैंने अंतत ह्रदय को चुना है। आज मैं और मेरा ह्रदय आपके सामने वो सब सब करने को तैयार है, जिसकी जरूरत अंधकार में जाते जीवन को है, मिटती मनुष्यता को है, बेसहारा निर्दोष जीवों को है, और अंत के लक्षणों को दर्शाती पृथ्वी को है।
ऐसा क्यों है कि इतनी आँखों के होते हुये, सिर्फ मेरी नजर ही क्यों इस बुराई पर पड़ी है, क्यों मेरे ही ख्यालों में जीवन की निरर्थकता उभर आई है। क्या कभी किसी को ये ख्याल आता है कि जीवन भटक गया है, जो कुछ भी अज्ञानता, अमानवता है, वो मिटाई जा सकती है, जीवन वास्तविक आनंद से भर सकता है ? नहीं आता होगा। क्योंकि उनके ह्रदय विचारहीन है। ये विचारहीनता क्यों है कहाँ से जन्मी ? सभी के सटीक एवं सत्य कारण हैं जिन्हे मैं आगे लिखूंगा। जुड़े रहिएगा।
अंततः जब सभी को मैंने इस नर्क में बिना रिएक्शन (परिवर्तन की चाह) के रहते देखा, तो एक पल के लिए मैं भी इस विश्वास में आ गया, कि ये नर्क नहीं आज का स्वर्ग है, इसमे जीना है तो, शांति से जियो, कुछ भी नया या बदलाव करना, धर्म, रिवाज और समाज के खिलाफ होगा और ये जानलेवा भी हो सकता है। मैं डर गया। पर कब तक मैं डरता, क्यों की मैं - मै हूँ, मै एक इंसान हूँ, धर्म और रिवाजों से बंधा हुआ कोई पुतला नहीं, जिसे जहां चाहो खड़ा कर दो, जैसा चाहो वैसा कर दो। इंसान एक प्राकृतिक रचना है और उसी प्रकार इसके प्राकृतिक गुण भी है, और मैं अपनी प्रकृति से समझौता नहीं कर सकता, क्योंकि प्रकृति से किया हुआ किसी भी प्रकार का समझौता भविष्य मे भयानक परिणाम ही लाता है। डरकर या स्वयं के सपनों को मारकर जीना मृत्यु से भी बदतर है और ये एक बड़ा पाप भी है। ये मेरा मानना है। और आपका ?
स्वयं में इंसान होना ही सबसे बड़ा धर्म है। दरअसल धर्म बुरे नहीं है, पर जब इनको मानने वाले बुरे कर्मों को करते नज़र आए तो मेरा धर्मों और रिवाजों में विश्वास न रहा। अगर किसी घटना या व्यक्ति से दिल दुख जाए तो समझ जाना चाहिए कि, उस व्यक्ति या घटना में कुछ गलत है, भले ही दुनिया उसको सही समझ रही हो, और आप ना चाहते हुये भी दूसरों की हाँ मे हाँ मिलाये जा रहे हो। जितने भी नवयुवा अपने ह्रदय की न सुन दूसरों की या पूर्वजों की हाँ मे हाँ मिलाते है या तो वो अपनी मात्रा से डरते हैं, या उनमे ज्ञान (अन्तर्ज्ञान) की कमी है। मात्रा से तात्पर्य संख्या से है, वे ढोंगी भी हो सकते है जिधर ज्यादा मत है वही सही है जिधर कम वह गलत, चाहे सच कुछ भी हो। यही तो अज्ञानता है जो उनमे घर कर गयी है, क्योंकि दुनिया जिन धर्म (जाति) और रिवाजों की राह पर चल रही है वो राह अज्ञानता और अँधेरों की ओर निरंतर अग्रसर है। लोगों ने स्वयं से नहीं पूछा है बस दूसरों को देख, रिवाज और धर्म (जाति) मान स्वीकार कर लिया। आखिर कब तक हम ह्रदय की अनदेखी करेंगे, ये ह्रदय और आत्मज्ञान जो आत्मा की आवाज़ है इसे जब तक न जाना जाएगा तब तक पाप और घृणा अपना आस्तित्व विशाल करती जाएगी और भविष्य बहुत ही भयानक और कष्टकारी होगा। शुरुवात हो चुकी है।
अरे मैं तो भूल ही गया मैं कौन होता हूँ भविष्य की फिक्र करने वाला करोड़ों की आबादी (जो महान गुरुओं, नेताओं और बुद्धिमानों से भरी पड़ी है) और फिर सरकार किसलिए है।
सरकार को और आबादी को कोई फर्क पड़े या न पड़े, पर फर्क पड़ता है मुझे, फर्क पड़ता है उन्हे जिनमें ह्रदय है, फर्क पड़ता है जब सच को मरता और झूठ को जीता हुआ पाता हूँ, फर्क पड़ता है जब सच्चे लोगों पर अन्याय होता है, फर्क पड़ता है जब पशुओं और जीवों पर अत्याचार होता है, फर्क पड़ता है जब पृथ्वी (प्रकृति) अपना बदला लेती है, हमें हमारे कर्मों का प्रतिबिंब दिखाती है और उसमे सच्चे और निर्दोष बच्चे भी मारे जाते है जिनका कोई कसूर नहीं है।
हम सब एक पारिस्थितिक तंत्र से जुड़े हुये है ये कहना उचित न होगा कि हमारी जो मर्ज़ी हम वो करेंगे (खासकर जनसंख्या बढ़ाने, प्रदूषण फैलाने और बुराई का साथ देने के संदर्भ में) फर्क पड़ता है जब हमारी आने वाली पीढ़ी इस नर्क रूपी दुनिया का हिस्सा बनेगी। क्या सोचेंगे हमारे बच्चे हमारे बारे में, कि हमारे पिता इतने स्वार्थी थे जो बदलाव के लिए खड़े न हो सके, जब उनका जीवन हमारे कर्मों की वजह से नर्क बनेगा, फर्क पड़ता है जब कोई बेवजह तकलीफ में होता है, क्यो की मैं मै हूँ, मैं एक मनुष्य हूँ, मनुष्य होना ही अपने आप मे एक स्वतन्त्रता है और जो धर्मों, जातियों तथा रिवाजों में बंध गया वो मनुष्य नहीं रहता। प्रेमवश स्वयं की खोज ही सबसे बड़े ज्ञान की खोज है और स्वयं को खोजने के लिए स्वतन्त्रता चाहिए परतंत्रता हर खोज मे रुकावट है।
विचलित हो जाता है ह्रदय जब किसी भी जीव को तकलीफ मे देखता हूँ चाहे वो मेरा दुश्मन ही क्यो न हो। मैंने अपने ह्रदय को अभी मारा नहीं है उसमे संवेदनाये है, उसमे लोभ-लालच, घृणा, अपना-पराया जैसी बुराई अभी नहीं समायी और न ही कभी मैं समाने दूँगा। क्योकि वो प्रेम से पहले ही भरा हुआ है उसमे तनिक भी जगह नहीं है कि उसमे बुराई का अंश मात्र भी आ सके। पर आज मेरे ह्रदय पर सामाजिक प्रहारों की आँधी सी आयी हुयी है। इन दिनों मैं बहुत ही संवेदनशील, आत्मघाती एवं ह्रदयघाती परिस्थितियों से गुजर रहा हूँ। यही वजह है कि मुझे कुछ सवाल उठाने पड़े है। अपने लिखित हक़ और अपनी बहुमूल्य स्वतन्त्रता के लिए। मेरे ह्रदय को कैद किया जा रहा है, उस पर मान सम्मान और इज्जत के पत्थर निरंतर फेंके जा रहे है। उम्मीद कम ही है कि मैं जीत सकूँ। पर हार मान लेना मेरे व्यक्तित्व में ही नहीं।
चलिये आगे बढ़ता हूँ -  
प्रेम जो श्रृष्टि का निर्माणक है। जिसका पर्याय आज पाप के समान है बस यही मूल वजह है हमारे समस्त कष्टों व समस्त बुराई की। प्रेम जो मुझ में जागे अन्तर्ज्ञान और समस्त बदलाव के विचारों का आधार है। यह मेरी आत्मशक्ति भी है। अब लोग कहेंगे कि हम पैसों के अभाव से परेशान है, पैसा होता सुख होता, नौकरी होती बड़ा सुकून होता। इस प्रेम जैसे शर्मनाक शब्द के पास क्या रखा है ये तो हमें चारों तरफ बेइज्जत करवा देता है। तो जरा यहाँ से समझिये - जिनके पास पैसा है वो भी मुझे इतने शांतिपूर्ण और प्रेमपूर्ण नहीं दिखते। गरीबों की मदद व अन्याय के लिए लड़ते नहीं दिखते। महज अपने परिवार की खुशियों में और अपनों में इतना व्यस्त है कि बाहर के जीवन से उन्हे कोई लेना देना नहीं है। ये जो उनका स्वार्थी होना एक बड़े अमीरी और गरीबी जैसे अंतर को जन्म देता है। लोगों में भावनाएं मर चुकी है, प्रेम मिट चुका है। आये दिन होते अरबों खरबों रुपयों के घोटाले इसी बात का प्रमाण है कि जो पैसा देश के विकास में, देश की तरक्की में, तथा देश की गरीबी दूर करने में प्रयोग किया जाता उसे कुछ सत्ताधारी लोग सिर्फ अपने लिए यूज कर लेते है। अब जरा अंदाज़ा लगाये ये घोटाले करने वाले लोग देश के कितने गरीब लोगों के हाथों से उनकी खुशियाँ छीनते है, लाखों लोगों के दुखों और उनकी भुखमरी का कारण बनते है, जरा सोचिए कितना घटिया और शैतानी व्यक्तित्व चाहिए इतना बड़ा पाप करने के लिए, लाखों करोड़ों लोगों के जीवन में दुखों का अँधेरा करने की वजह बनना कोई मामूली बात नहीं है, पर जिनकी आत्मा मृत है, ह्रदय सोया हुआ है उनके लिए ये सब करना मामूली सी बात है। क्या एक प्रेमपूर्ण इंसान ये कर सकता है, एक ऐसा इंसान जिसमें भावनाएं हो जिसका ह्रदय प्रेम से भरा हुआ हो क्या वो ऐसा शैतानी कार्य कर सकता है, मेरे हिसाब से तो मरते दम तक नहीं। अंततः जब भी मैं किसी भी समस्या पर चाहे वो हिंसा हो, अन्याय हो, बेरोजगारी हो, प्रदूषण हो ऐसी तमाम समस्याओं पर गहनता से विचार करता हूँ तो बात आकर ह्रदय पर रुक जाती है। यही वजह है कि मुझे प्रेम की बात, ह्रदय की बात उठानी ही पड़ी। आज नहीं तो कल, जब भी गहन दृष्टिकोण के आधार पर समस्याओं के नैतिक कारणों की खोज की जाएगी तो यही बात सामने आएगी। दूसरी कोई वजह नहीं है, अन्यथा अब तक सुधार हो गया होता कब का, पर नहीं हुआ और न ही होगा। जब तक इंसान को शैतान बनाने वाले कारणों की बुनियादी खोज नहीं होगी।
जब लोगों के जीवन में वास्तविक प्रेम होगा, खुशियाँ होंगी तब जाकर उनमें जो समझ जन्म लेगी वही एकमात्र वास्तविक समझ है, जिसकी दुनिया को अत्यंत आवश्यकता है। गरीबों का मानना है कि जीवन को प्रेमपूर्वक जीने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है, पैसा ही नहीं है तो क्या खुशियाँ क्या प्रेम। दूसरी तरफ जो अमीर लोग है वहाँ भी तो बड़े पैमाने पर प्रेम का अभाव ही दिखता है। प्रेम के लिए पैसा नहीं ह्रदय की जरूरत पड़ती है। दरअसल मुख्य बात ये है कि हमारे धर्म, हमारी संस्कृति, हमारा समाज - प्रेम को आज्ञा नहीं देता। विवाह को आज्ञा दी जाती है, और विवाह से प्रेम उत्पन्न नहीं होता। आज तक नहीं हुआ न ही हो सकेगा। जीवन को नर्क बनाने वाले ऐसी ही गहनतम और बुनियादी कारणों को विस्तार से समझने और जानने के लिए जुड़े रहिए। सारे प्रश्नों का जवाब काफी हद तक मेरे लेखों से ही मिल जाएगा और फिर प्रेमपूर्ण; आनंदपूर्ण और शांतिपूर्ण मनुष्यता के निर्माण में हम सबको एक साथ मिलकर कदम बढ़ाने होंगे। आगे बढ़ते है...
आर्थिक तंगी गरीबी एवं घोटालों से जुड़े हुये सत्यमेव जयते के एक एपिसोड का Youtube लिंक मैंने नीचे दे रखा है। सभी से विनम्र निवेदन है एक भारतीय नागरिक होने के नाते कृपया वीडियो जरूर देखे और समझे कि किस प्रकार कुछ ह्रदयहीन लोग अपने स्वार्थ के लिए लाखों करोड़ों लोगों के दुखों की वजह बने हुये है। हमारे विधालयों में स्वार्थ की कोई अलग से क्लासें नहीं चलती है। ये स्वार्थ हमारे अपनों के बीच रहते हुये, समाज में जीते हुये ही लोग सीखते है और फिर कष्ट भी इसी समाज को देते है। तभी तो कहा जाता है जैसा दोगे वैसा पाओगे। बच्चों को मतलबी होना, स्वार्थी होना सिखाओगे तो वो किसको लूटेंगे, अपनों को ही, हम सबको। कृपया बच्चों को अपना-पराया का ज्ञान मत दे। यही बच्चे आगे चलकर देश के भविष्य बनते है। नीचे लिंक दिया हुआ है कृपया वीडियो जरूर देखे अगर वास्तव में देश से प्रेम है तो।
अत्यंत आश्चर्य की बात ये है कि मैंने जो प्रेम नाम का शब्द प्रयोग किया है वो 99% लोगों की समझ से परे है, उन्हे इस शब्द का वास्तविक अर्थ तक नही पता, उनके अनुसार प्रेम सिर्फ भोग (सेक्स) को दर्शाता है और भोग विवाह पूर्व पाप, ये ज्ञान उन्हे समाज का महान अनुभवी ज्ञानी होने का एहसास दिलाता है और ये एहसास वास्तविकता मे तब परिवर्तित हो जाता है जब वो एक स्त्री के साथ महज काम (सेक्स) तक ही सीमित रह जाते है। इसी काम को वो प्रेम समझ बैठते है और यही शिक्षा वो अपने बच्चो को भी देते है और अनुभवी ज्ञानी होने का दावा भी ठोकते है। कितने महान ज्ञानी है सब। अगर ये काम (सेक्स) प्रेम होता तो ईश्वर प्रेम को पवित्र होने की संज्ञा न देते, प्रेम को ये महानता न प्राप्त होती, प्रेम श्रष्टि का निर्माणक न कहलाता और प्रेम स्वयं ईश्वर न कहा जाता। हाँ मेरी दृष्टि में काम (सेक्स) जो कि जीवन को निर्मित करता है जिसमें एक गहरी शक्ति छुपी हुयी है। वो शक्ति जिससे जीवन निर्मित हो रहा है, पुष्प खिल रहे है। वो पाप कैसे हो सकता है ? अगर ये निर्माण की शक्ति; जीवन के शुरुवात की शक्ति पाप है तो सारा जीवन ही पाप हो जाएगा और जीवन रचने वाला ईश्वर महापापी होगा। ऐसा कुछ भी नहीं है बस अज्ञानता के चलते भीड़ ने ये स्वीकार रखा है।
प्रेम क्या है ? क्यो है ? इसकी सत्यता और गहनता तथा सार्थकता पर विस्तृत रूप से चर्चा होगी पर अगले लेख में। आगे बढ़ते है...
यहाँ मैं स्वयं के बारे मे लिखना चाहूँगा।
मैं स्वयं को इस भीड़ से अलग पाता हूँ। मेरे कर्मों को देखकर सभी मुझे पागल समझ सकते है और समझते भी है। मुझे प्रकृति से बेहद लगाव है, मैं लहरों को देखते - देखते स्वयं भी बहने लगता हूँ। मुझे जीवों से प्रेम है जानवरों और पक्षियों से। आज के इन्सानों की अपेक्षा मैं जानवरों के साथ रहना ज़्यादा पसंद करूंगा, क्यों कि ये धर्म (जाति) और रिवाजों से जकड़े हुये नहीं है। इन्सानों की अपेक्षा इन जीवों का प्रेम मुझे निस्वार्थ और सच्चा प्रतीत होता है। मुझे सपने सजाने पसंद है क्योंकि जिसकी ज़िंदगी मे सपने नहीं होते उसे मैं ज़िंदगी नहीं समझता। आज सपने हकीकत में बदलना मुश्किल है, लेकिन मुझे Challenges (चुनौतियाँ)  भी पसंद है, ये मुझे मेरी आत्मशक्ति से मिलाते है। मैं एक बेहद ही भावुक इंसान हूँ, मैं स्वयं से ज़्यादा दूसरों की  फिक्र करता हूँ। भावुकता का आगमन मुझमें गहन चिंतन की वजह से होता है। गहन चिंतन मेरी प्रकृति है और ये बेहद जरूरी भी है क्यों कि चिंतन ही बदलाव का कारण बनता है। मैं सब बदलना चाहता हूँ बाहरी वातावरण में फैली बुराई (स्वार्थ, लोभ, घृणा) ये सब क्यों है?  क्यों लोग स्वयं ही इस खूबसूरत दुनिया को इस नर्क मे तब्दील करते जा रहे है, ऐसा लगता है उनमें भावनाएं नहीं है, वो प्रेम को नहीं समझते। मेरी दृष्टि में - लोगों ने प्रेम को जो घृणा और अनादर दिया है वो अत्यंत अपेक्षित है। मैं दुनिया में प्रेम फैलाना चाहता हूँ,  सिर्फ प्रेम ही है, जो दुनिया को घृणारहित और खूबसूरत बना सकता है। प्रेम जो ह्रदय की अभिव्यक्ति है और ये आत्मशक्ति भी है, परंतु आज लोग स्वार्थ रूपी संतुष्टि (Lust) में प्रेम खोजते फिर रहे है। प्रेम का पर्याय ही उनके लिए पाप समान है। बस यही मूल वजह है हमारे दुखों की। अभी इतना ही। विस्तार जारी रहेगा...
वापस आगे बढ़ते है – यहाँ मैं कम से कम शब्दों में प्रेम पर महज दो बातें कहना चाहूँगा। जबकि प्रेम शब्दों का विस्तार है पर अगले लेख में, अभी दो बातें ही काफी है और जिसे इन दो बातों में कुछ समझ न आया तो उसे जीवन में कभी कुछ समझ न आएगा।
प्रेम ब्रह्मांड की सुंदरतम रचना है, ईश्वर की सबसे अद्भुत रचना। प्रेम के दो तल है, आत्मिक और शारीरिक। आज सारी दुनिया शारीरिक तल को ही प्रेम समझ बैठी है। जबकि शारीरिक तल तो शुरुवात है प्रेम के मार्ग पर और आत्मिक तल अंत। आत्मिक तल जहां प्रेम परमात्मा होने लगता है, फैलने लगता है प्रवाहित होने लगता है, अन्याय के प्रति; अमानवता के प्रति; स्वार्थता के प्रति, उस हर घटना के प्रति जिसे ह्रदय आज्ञा नहीं देता। प्रेम तो एक स्वतन्त्रता है, प्रेम आत्मिक तल पर तभी बढ़ सकता है, जब उसे सामाजिक कैदों से मुक्ति मिले; आदर मिले; सम्मान मिले पर समाज तो प्रेम का सबसे गहरा और सबसे बड़ा दुश्मन है। लोगों को प्रेम के वास्तविक तल का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। शारीरिक तल से उठो और आत्मिक तल पर रुको।
जिस प्रकार सामाजिक लोगों ने ज्ञान के अभाव में प्रेम के शारीरिक तल को वास्तविक प्रेम मानप्रेम के आत्मिक तल तक जाने के सभी मार्गों को सदियों से अवरुद्ध रहने दिया हैवो मनुष्यजाति की अब तक की सबसे बड़ी भूल रही है। और कुछ शैतानी बुद्धि वाले लोगों ने अपने समय की मांग के अनुसार स्वार्थवश जो सामाजिक व्यवस्थाये रची वो आज मनुष्यजाति के जीवन को नर्क बनाने में सबसे खतरनाक रचनाएँ साबित हुयी है। सारी सामाजिक व्यवस्थाये प्रेम के विकास को रोकने का काम करती हैवो लोगों में प्रेम को महज विवाह के जरिये शारीरिक तल पर स्थिर कर देती हैताकि ये सामाजिक व्यवस्थाये न टूटे और समाज बिखरने से बचा रहे। पर आखिर कब तक हम समाज को बचा सकेंगे यही समाज जब इतना अधर्मइतना अंधकारइतना व्याभिचार पैदा करेगा तो एक समय ऐसा आएगा जब मनुष्य मनुष्य को ही निगल जाएगा। जीवन की रक्षा करने वाली प्रकृति को मिटाने लगेगा और फिर ऐसी प्रलय आएगी जो उखाड़ फेंकेगी सारी खोखली सामाजिक व्यवस्थाओं को और साथ ही साथ सारी जीव जातियाँ मनुष्य की मूर्खताओं का परिणाम भुगतेंगी। लगभग यही समय शुरू हो चुका है पर लोग अब भी एक गहरी निंद्रा में हैइस गहरी और मूर्छित निंद्रा से उन्हे जगाना लगभग असंभव है। पर मेरा फर्ज है कि मैं उन्हे सत्यता से परिचित तो करूँ। एक मनुष्य होने के नाते मेरा नैतिक कर्तव्य बनता है कि आने वाले भविष्य के लिएआने वाले बच्चों के लिएसम्पूर्ण प्रक्रति तथा जीवजाति के हित के लिए मैं वास्तविकता का व्याख्यान तो करूँ। मैं इस अंधी भीड़ से डरकर चुप न रहूँ। मैं सत्य के साथ आगे बढ़ूँचाहे मुझे मौत ही क्यों न मिले और ऐसी मौत मेरे लिए वीरगति से कम नहीं। वापस आगे बढ़ते है...
एक बच्चा जो इन सब बातों से अंजान है उसके कर्मों मे हमें प्रेम नज़र आता है, क्योकि वो नहीं जानता कि प्रेम पाप है, दया दिखाना पाप है। बचपन मे उसके कृत्य ह्रदय से ज़्यादा संचालित होते है वरन मस्तिष्क से और फिर हमारी शिक्षा और हमारा समाज, हमारे धर्म, हमारे धर्मगुरु उसके मस्तिष्क मे ऐसे बम फोड़ते है कि वो ये तय करना ही भूल जाता है कि क्या सही है और क्या गलत इस असमंजस की स्थिति और कठोर जगत के अनुभव उसके ह्रदय के विकास को रोकते ही नहीं वरन ह्रदय को उसकी वास्तविकता से उखाड़ फेंकते है और फिर बनता है एक मानव जो 21वीं सदी में भारत में जन्मा एक रोबोट है। जो रिवाजों से संचालित है, जो वही करता है जो उसमे फीड किया जाता है। समय समय पर उसके माता पिता और परिवार वाले जो रिवाजों के रिमोट की बटन को दबाते है और उनका रोबोट रूपी बच्चा प्रेस की हुयी बटन के अनुसार परिणाम लाता है और माता पिता गर्व से फूले नहीं समाते है कि कितना आज्ञाकारी बेटा है। कितना संस्कारी है जबकि उन्हे ये नहीं ज्ञात होता कि उनका बेटा वो नहीं है जो बचपन मे ह्रदय के अनुरूप खेलता था मुस्कुराता था। आज उस से उसकी वास्तविकता को छीन हम उसे रोबोट बना आज्ञाकारी और संस्कारी होने का दर्जा देते है। ये तो वो स्वयं ही जानता होगा अगर सच मे पूर्ण रोबोट मे तब्दील न हुआ होगा, कि क्या सच है और वास्तविक रूप से क्या होना चाहिए। क्या जीवन भर पैसों के पीछे भागते रहना ही जीवन है। क्या यही वास्तविक जिंदगी है जो पूर्ण रूप से स्वार्थ और पैसों पर टिक कर रह गयी है।जागिए माता पिता ! आप सब और रिवाजों, जाति, धर्म की वजह से हम, हम न रह गए है। हम रोबोट बन चुके है। अगर कोई हम नवयुवाओं को मुर्दों की भीड़ भी कहे तो उसका कहना गलत न होगा।ह्रदय की आजादी के लिए, हम तड़प रहे है, हम खोज रहे है कोई ऐसा जो हमारी भी सुने पर कहीं ऐसा कोई नही है। सभी के तर्क वितर्क इतने महान है क्यो की वो प्राचीन वेदों, ग्रन्थों शास्त्रों और धर्मों से लिए गए है, जो रिवाजों और संस्कारों के रूप में हम पर हावी है। भले ही आपकी बातें सालों के अनुभव से बनी है परंतु क्या आप ने कभी सोचा है आज जो बीस सालों मे बदलाव आया है वो पिछली कई सदियों तक मे न आया था और आज वो दिन नहीं है जो आप के समय हुआ करता था। हमें आज़ादी दो दुनिया बदलने की क्योंकि आगे का भविष्य हमारे बच्चों का भविष्य है और हम जानते है किस तरह की शिक्षा और किस तरह के संस्कारों से उन्हे इंसान बनाना है न कि रोबोट जो आज के युवा है।
रोबोट तो तब भी सही है पर आज के युवा खराबी युक्त मतलब पाखंडी रोबोट है जो एक तरफ तो माँ बाप के अनुसार चलते है और दूसरी तरफ अपनी मर्जी से बुराई के रास्तों पर भी अग्रसर है पर उनकी बुराई छुप जाती है क्यो कि अंत मे वो माँ बाप की मर्जी स्वीकार कर लेते है और छिपकर न जाने कितने कुकर्म और पाप करते है। और जो रोबोट नहीं है वो विरोध करते है माँ-बाप और समाज का और उन्हे समाज और स्वयं के घर से बहिष्कृत (बेदखल) होना पड़ता है बुरी यातनाओ और बुरे शब्दों के साथ। परंतु जिनमे सामर्थ्य नही है आराम को त्यागने की, सच के खिलाफ आवाज़ उठाने की वो रोबोट बन जाते है। रोबोट से तात्पर्य स्वार्थ पर आ जाना, जो स्वार्थ पर आ गया वो आत्मज्ञान एवं ह्रदयज्ञान से गया। उसे दुनिया की क्या फिक्र होगी उसे सिर्फ पैसा और अपने माँ-बाप की खुशी और अपनी पत्नी तथा बच्चे ही नज़र आते है। वो भी स्वार्थ के लिए; पत्नी जो उसकी भौतिक इच्छाओं एवं ग्रहस्थ कार्यों के लिए आवश्यक है, बच्चे जो उसके वंश और बुढ़ापे के लिए आवश्यक है। बस इस से ज्यादा कुछ नहीं रह गया है आज समाज में, ये परम सत्य है, जो समय पर सत्यता को दर्शाता है। भूलकर भी ये भूल न करना कि समाज में प्रेम हो रहा है। बस दायित्वों की पूर्ति और सड़े–गले, रीति-रिवाजों की रक्षा हो रही है। जिसका मुख्य कारण लोगों का अशिक्षित एवं समझहीन होना है।
ऐसे रोबोट रूपी युवाओं को बदलाव इस सदी का सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य लगेगा, पर जिसने ह्रदय की शक्ति और आत्मशक्ति को पहचान लिया उसके लिए नामुमकिन अब कुछ भी नहीं।
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जागो ! दुनिया को खूबसूरत बनाओ...एक कदम परिवर्तन की ओर बढ़ाओ...।
क्रमशः अगले लेख में :- गहनतम विस्तार के साथ, जुड़े रहिएगा।
अंततः कुछ बातें नवयुवाओं से मैं कहना चाहूँगा - मानता हूँ मेरी बातों से आपको रोजगार नहीं मिल जाएगा न ही आप अमीर हो जाएंगे, वैसा कुछ भी नहीं मिलेगा जिसकी जरूरत आपको अभी है। पर वादा करता हूँ आप अपने बच्चों का भविष्य बेहतरीन करके जाएंगे। जितना संघर्ष जितनी कंगाली जितने दुख आज आपके जीवन में है वो कल बच्चों के जीवन में न होंगे। जितनी हिंसा जितना अधर्म जितना अन्याय आज आपके जीवन में चल रहा है कल उतना बच्चों के जीवन में न होगा। परंतु अगर आप स्वार्थी है तो होने दीजिये जो हो रहा है। परंतु मुझे चुप रहना कायरता और जाहिलता का अनुभव कराता है। और मैं ये सब सहन नहीं कर सकता। कोई भी मनुष्य इतना सब सहन नहीं कर सकता हाँ मुर्दे कर सकते है। और मैं मुर्दा नहीं हूँ। मैं हूँ गौरव।
जय हिन्द।
" गौरव "
हो सकता है मेरी बातें आपको बुरी लगे उसके लिए मैं ह्रदय से क्षमा चाहूँगा। पर जब तक ह्रदय पर चोंट न लगेगी तब तक बात भी न बनेगी। हाँ आपके मन में बहुत से सवाल जरूर पैदा हो गए होंगे और आपकी चालाक बुद्धि ने मुझे दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख भी घोषित कर दिया होगा पर सच का पता तो आपके सवाल करने से ही चलेगा। बेझिझक सवाल करिए। मेरा Whatsapp नंबर है – 9690891143 धन्यवाद।

#I_M_GauraV

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