आए दिन
बढ़ते अन्याय और अत्याचार ऊपर से उखड़ती न्याय की जड़े, दम तोड़ती मनुष्यता, नष्ट
होती प्रकृति। इन्सानों
के दिये कष्टों को सहती जीव जातियाँ; अंधकार में जाता भविष्य। यही कुछ असाधारण वजहें
है, जिन्होने मेरे अंदर के लेखक को जगा दिया है और मुझे भी। चलिये जमीनी स्तर से
शुरुवात करते है, झूठ को
बेनकाब करते है।
मैं
ग्रामीण परिवेश से हूँ जहां अशिक्षित लोग शिक्षित लोगों पर राज करते है, मानसिक
और शारीरिक शोषण के रूप में, साथ ही
साथ संविधान और मानवाधिकारों का उल्लंघन उनके लिए आम बात है। क्यों
कि उनके अपने अलग कायदे कानून है जो देश के कायदे कानून से मेल नही खाते। पर अक्सर
यही लोग देश के लिए जान देने को उतावले नजर आते है। अपने बच्चों को फौज में
ज़्यादातर ये ग्रामीण परिवेश के लोग ही भेजते है। परंतु फिर भी देश की नींव कहे
जाने वाले संविधान और देश का आधार कहे जाने वाले कानून को ये लोग लातों और अपनी
लाठियों के दम पर पैरों तले कुचल डालते है। उनकी इन्ही मूर्खताओं की वजह से मैंने
उन्हें अशिक्षित कहा है। दूसरी
बात - अक्सर लोगों के पास समय की अधिकता होने के कारण उनका खाली समय दूसरों की
बुराइयाँ खोजने में, राजनीति
करने में, जुआ
खेलने में, षणयंत्र
रचने में बीतता है। कुछ ऐसा हो कि उन्हें खाली समय बिताने के तरीके मिल जाये तो
खोजबीन करने पर उन्हें कुछ ऐसे सुराख मिल ही जाते है जो आसानी से उनके खाली समय को
बेहद उम्दा तरीके से व्यतीत करने में पूर्ण मदद करेंगे। ज्यादातर
उनके सुराख अत्यंत घातक सिद्ध होते है। ये छोटी छोटी बातों के सुराख उन्हें मौत के
खेल तक ले आते है। पर फिक्र किस बात की उनका समय तो कट ही रहा है बड़े उम्दें तरीके
से। चलिए
मुद्दे पर आते है। अक्सर आये दिन मैं अपने ही परिवेश में लोगों की होती निर्मम
हत्याएँ देखता हूँ। पर मैं झूठ नहीं कहूँगा, मैंने यहाँ रेप जैसी घटनाएं शायद न के बराबर
सुनी है। उसकी वजह है - यहाँ के लोग इज्जत, मान-सम्मान को अपनी जान से भी ज्यादा महत्व देते
है। और अगर किसी ने गल्ती से भी रेप जैसा कुकर्म किया तो कानून तो उसे बाद में सजा
देगा पर यहां के लोग उसे पहले ही कच्चा चबा जाएंगे। शायद इसी वजह से यहां रेप नहीं
होते।परंतु
झगड़ों के बिना तो लोगों का एक
वक़्त का खाना भी
हजम नहीं होता। राह चलते झगड़े हो जाते है पर ये झगड़े इतने सस्ते भी नही होते।
लाठियाँ, बंदूके
यहाँ तक कि महिलाएं भी ईंटो और पत्थरों की वर्षा करने लगती है। नुमाइश सी लग जाती
है पर मैं सिरफिरा अपने में ही मस्त रहता हूँ। दरअसल उनका मूर्खों की तरह इस कदर
अपनो से ही झगड़ना मुझे अत्यंत घटिया और अज्ञानता से भरे व्यक्तित्व का अनुभव कराता
है। मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि इतने सारे लोग एक साथ इतने समझहीन और विवेकहीन
कैसे हो सकते है। उनकी
उम्र के हिसाब से उनका व्यक्तित्व इतना घटिया, इतना दो कौड़ी का कैसे हो
सकता है। शायद
मैं कह नही सकता कि ये शिक्षा का अभाव है या प्रेम का। पर शिक्षा का तो नही है
क्यों कि शिक्षित लोगों को भी मैं ठीक उसी लहजे में लड़ते हुए पाता हूँ। हाँ ये
लड़ने वाले खुद को वीर शिवा जी से कम न आंकते होंगे। पर क्या ये दो कौड़ी की लड़ाइयां
और गालियाँ हमें मर्द होने का एहसास दिला सकती है। मुझे तो नहीं लगता। जरा मैं
आपको लड़ाइयों की वजह तो स्पष्ट कर दूँ। अरे उस फलनवां ने मेरे खेत की मेड़ काट ली, अरे उस
कलुआ ने मेरी जगह में अपने खेत की सीमा को बढ़ा दिया। अरे उसका जानवर मेरे खेत में
घुस गया, तुम
अपने घर के नाले को मेरे घर के सामने से बहाओगे, अरे उस अंधियारे के लउड़ा
ने मेरी बिटिया को फ़ोन किया। और न जाने कितनी तुच्छ वजहें। और इन्ही वजहों के चलते
लड़ाइयाँ अत्यंत अशोभनीय गालियों से शुरू होकर लाठी; डंडों और बंदूकों तक
पहुँच जाती है। यहाँ तक कि निर्मम हत्याएँ भी हो जाती है। हत्यारे बड़े शौक से
हत्या को अंजाम देते है। ऐसा लगता है उन्हें कानून का डर न के बराबर है।
वास्तविकता भी यही है - किसी की हत्या करना लोगों के लिए मामूली सी बात हो गयी है।
कानून खरीद लिया जाता है। और हत्यारों का आत्मबल निरंतर बढ़ता जा रहा है। ये निर्मम
हत्याएँ जिसमें ईंटो और पत्थरों से लोगों का सर कुचल देते है, धारदार
हथियारों से उनके टुकड़े - टुकड़े कर दिए जाते है। ऐसा लगता है समाज - परंपरा, इज्जत, व मान
सम्मान के नाम पर वहसी दरिंदे पैदा कर रहा है।मेरी
तो रूह कांप उठती है, ऐसे घातक अपराधी हमारे बीच रहते है। ये कहना गलत न होगा कि
आज हम इंसानो के बीच रह रहे है बल्कि ये
कहना सच होगा कि हम शैतानीं दरिंदों के बीच रह रहे है। परंतु समाज की नजर में ये निर्मम हत्याएँ मर्दानगी का प्रमाण है क्यों कि इज्जत अथवा मान सम्मान की रक्षा करना सामाजिक लोगों का धर्म है और ये हत्याएँ गौरवपूर्ण है। आखिर ये मर्दानगी से ओत-प्रोत वहसीपन; ये
दरिंदगी इन युवाओं और बड़े बूढ़ों में आ कहाँ से रही है। क्या ये लोग इन हरकतों की
आतंकी संगठनों से ट्रेनिंग लेते है या नक्सलवादी इन्हें ऑनलाइन अभ्यास कराते है।या फिर
इनके रहन सहन के ढंग और तौर
तरीके या इनके
माँ बाप और उनका पालन
पोषण या फिर इनका
समाज इन्हें दरिंदा बनाता है। यहां हर युवा के अंदर एक दरिंदा
छुपा हुआ है, हर बाप
के अंदर भी है, बस
इतना कह दो कि तुम्हारे घर की इज्जत पर आंच आने वाली है और फिर देखना ये मासूम से
दिखने वाले लोग जिन्हें देखकर मैं उनके इंसान होने का भ्रम खाता हूं दरसल वो इंसान
के वेश में छुपे वहसी दरिंदे है, निर्मम
हत्यारे है। इतनी अधिक दरिंदगी करते वक़्त न इनकी रूह काँपती है और न इनका हृदय
आवाज देता है। आखिर इनका चित्त इतना कठोर इतना निर्मम कैसे हो सकता है। मुझे देख
लो - राह चलती चींटियों के लिए मुझे अपनी रास्ता बदलनी पड़ जाती है, क्यों कि अगर भूलवश मेरे
पैरों से उनकी हत्या हो भी गयी तो मेरा हृदय मुझे बेचैन कर देता है। सवाल खड़े करने
लगता है। आखिर क्यों मारा उन चींटियों को जरा देखो हम मनुष्यों की
अपेक्षा उनका
जीवन कितना अच्छा है। एक-एक मनुष्य विषाद से; पीड़ा से; चिंताओं से भरा हुआ है, जबकि
वो चींटियाँ अपने काम में मस्त है मगन है। अच्छा होता कि तुम्हारे पैरों से - जीवन
से बुरी तरह से ऊभ चुके मनुष्य के वेश में छिपे इन दरिंदो की हत्या हो जाती तो
शायद बेचारों की आत्मा सुकून पाती। और यही हक़ीक़त
है। आज लोग
जितने हिंसक; जितने
अशांत और जितने बहुरूपिये हो गए है, उतने पहले कभी न थे। हर घर में वहसी हत्यारे बैठे है। बस चिंगारी
भड़काने की जरूरत है, विस्फोट
कितना विकराल होगा कुछ भी अंदाजा नही है। और मजे की बात है कि हर घर में एक माँ भी
है जो दावा करती है कि वो अपने बच्चों को इस दुनिया में सबसे ज्यादा चाहती है। बाप
का तो नही कह सकता क्यों कि वो तो बहरूपिया है। न जाने कब उसके अंदर का शैतान जाग
उठे। ऐसे दो रूपों के इंसान प्रेम नही कर सकते और न ही अपने बच्चों को इतना शांत
और प्रेमपूर्ण बना सकते है। जरा माँ से मेरा एक सवाल है आखिर उनका वर्षों का
निस्वार्थ और शक्तिशाली प्रेम;
बच्चों पर इतना भी प्रभाव न छोड़ता है कि वो इंसान बन सके। उनके
हृदय में अमानवता के प्रति पीड़ा हो। उनकी आत्मा उन्हें शैतानियत के प्रति रोक ले। पर सब
छलावा है। सब दिखावा; सब
ढोंग है। अगर सत्य होता तो परिणाम सार्थक सकारात्मक आते, ये
नकारात्मक परिणामों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया है। काफी समय बीत चुका है, जब से मैं एक गहरी खोज
में था कि आखिर सत्य क्या है? अंततः मैंने
काफी हद तक बुनियादी कारणों की खोज की है। क्यों कि बचपन से मेरा हृदय इतनी
अमानवता देख पाने में असफल रहा है। मेरी आत्मा इतना अन्याय; इतना
पाप; इतना
ढोंग इन सब पर सवाल खड़े करती आयी है। और आज उन सवालों के दम पर मैंने यहां तक का
सफर तय किया है। ये तो बस शुरुवात है पर मुझे शिखर तक जाना है। मुझे हिंसकता की
जड़े भी टटोलनी है। मुझे माँ के प्रेम पर भी शक होता है; जो
बच्चे को आज तक
इंसानियत न सिखा पाया हो। मुझे उस हर व्यक्ति, वस्तु पर शक होता है जो मनुष्य से उसकी प्रकृति को
नष्ट करने की वजह बन रहा है, मुझे
समाज और उसके तौर-तरीकों पर भी शक होता है। और मेरे ये शक जायज भी है। एक व्यक्ति
आज जो है - वो कल का ही एक
निचोड़ है, कल
मतलब अपने घर का; अपनी
संस्कृति का; अपने
समाज का और उसके अपने माँ बाप - उसका परिवार और उसके शिक्षकों
का। ये सारे तल है, जिनसे
मिलकर आज एक बच्चा एक व्यक्ति बन पाया है। पर अगर व्यक्ति के अंदर शांति
नहीं है; प्रेम
नहीं है; जीवन
के प्रति एक उल्लास नहीं है। है तो सिर्फ एक सोयी हुयी आग जिसे जरा सा भड़काने पर एक शैतान
जन्म लेता हो तो समझ
लेना सारे तल निरर्थक साबित हुए है। कोई मूल्य नहीं रहा शिक्षा का; संस्कार
का; यहाँ
तक कि बच्चे की परवरिश का। अंततः सारे रिश्ते; सारा समाज और सारी मान्यतायें मनुष्य के
विकास का सारा बुनियादी ढांचा झूठा साबित हुआ है। पर किसमें हिम्मत है-जो
अरबों लोगों के आगे ये बात कह जाए - कि तुम सब जिन रास्तों पर चल रहे हो, वो सब रास्ते तुम्हे शैतान
बना रहे है न कि
मनुष्य। जिसमें तुम्हारे
धर्म से लगाकर तुम्हारी संस्कृति; तुम्हारे
गुरु; तुम्हारे ईश्वर; व तुम्हारी पूजाएँ सब लगातार असफल साबित हो रही हैं।पर
शायद ही लाखों में कोई एक हो।परंतु करोड़ो लोगों की
मौजूदगी, करोड़ों लोगों का वो
अंधा विश्वास किसी एक को क्या तवज्जो देगा ? पर कोई बात नहीं मेरा
फर्ज था कि मैं सत्य को परिभाषित करूँ और मैंने शुरुवात कर दी है। क्यों कि मैं एक
मनुष्य हूँ और मुझे मनुष्यता से प्रेम है। ईश्वर की रची इस खूबसूरत दुनिया से
अत्यंत लगाव है। जीवन के प्रति मेरे हृदय में आदर है; सम्मान
है; संगीत
है। और प्रेम मेरे लिए प्रार्थना समान है। प्रेम के अलावा कुछ भी शास्वत नहीं है।
प्रेम के सिवा कोई
पूजा नही है। प्रेम सर्वोपरि है और प्रेम
ही जीवन है। अभी
इतना ही जल्द ही मिलते है अन्य गहन तथ्यों के साथ।
क्योंकि आने वाला कल नर्क से भी भयावह होगा अगर आज से ही हमने बदलाव
की नींव न रखी तो।
0 comments:
Post a Comment